गुरुवार, 2 जुलाई 2009

समलैंगिकता को महिमामंडित न करें

आज दिल्ली हाईकोर्ट ने समलैंगिकता को अपराध के दायरे से बाहर निकाल दिया और इसे जायज करार दिया। इस फैसले के साथ ही समलैंगी लोगों में खुशी की लहर दौड़ गई। हो भी क्यों नहीं आखिर उनको समाज की मुख्य धारा में आने का मौका मिला। लेकिन इस फैसले के बाद एक खास बात जो मुझे आकर्षित करती है वह यह है कि इससे लोगों में गजब का उत्साह है। वो इस पर खुश हो रहे हैं, जैसे कि यह बहुत ही जायज काम है और यह होना चाहिए।

सबसे पहली बात तो यह है कि यह एक अप्राकृतिक कार्य है इससे किसी को भी गुरेज नहीं होना चाहिए। अगर कोर्ट ने यह फैसला दिया है तो इसका मतलब सिर्फ इतना है कि जिन लोगों के साथ प्रकृति ने अन्याय किया है अब उनको भी समाज की मुख्यधारा में आने का मौका मिलेगा। इस प्रकार के बीमार लोगों को भी हक है कि उनको वो सभी स्वास्थ्य सेवा मिले जिससे वो महरूम होते आ रहे हैं। इसका कारण सिर्फ इतना था कि अभी तक यह अपराध था, जिसके कारण ये पुलिस के डर से किसी बीमारी कि स्थिति में भी डॉक्टर के पास से जाने से बचते रहते थे। इस रूप में मुझे इस कानून का स्वागत करने में कोई परेशानी नहीं है।

मुझे परेशानी इस बात से है कि चैनलों ने इतिहास पलटकर दिखाने की कोशिश की जैसे कि यह सबका जन्म सिद्ध अधिकार है और जैसे कि इसमें पूरा समाज ऐतिहासिक काल से लिप्त रहा हो। साथ ही बॉलीवुड फिल्मों का उदाहरण दिया जाने लगा जैसे कि ये फिल्में ही जिंदगी का रास्ता तय करती हों। ये ठीक है कि मनुस्मृति और कामसूत्र में इसके बारे में उल्लेख है, जिसका कि सभी चैनलों ने उल्लेख किया लेकिन साथ ही इसमें इसको अनैतिक और अप्राकृतिक भी करार दिया है, इसको चैनलों ने एडिट कर दिया। और सबसे बड़ी बात इतिहास में अगर किसी बात का जिक्र है तो इसका मतलब यह नहीं है कि वह सर्वमान्य है। अगर ऐसा है तो मैं एक उदाहरण देता हूं, जो तुलसीदास की रामायण में है। उन्होंने लिखा हैः-

ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी,
ये सब है तारण के अधिकारी।।

इसको भी मानिए। मेरा कहने का मतलब यह है कि इतिहास में कई अच्छी और गलत बातों का जिक्र है। उसको हमें उसी रूप में लेना चाहिए। समलैंगिकता के समर्थक लोग ये भूल जाते हैं कि आज अगर समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से निकाला गया है तो इसलिए नहीं की यह बहुत ही अच्छा है। यह सिर्फ इसलिए है कि समलैंगी लोगों में एड्स के खतरे से बचाया जा सके। धारा-377 को खत्म करने की याचिका दायर करने वाली संस्था नाज फाउंडेशन एड्स के खिलाफ लड़ने वाली एक संस्था है। मेडिकली भी यह साबित हो गया है कि अप्राकृतिक यौन संबंध में एड्स का खतरा प्राकृतिक यौन संबंध से कहीं ज्यादा होता है। इसलिए इस कानून में सुधार जरूरी है ताकि वो खुले आम समाज के सामने आ सकें और स्वास्थ्य सेवा ले सकें।

इससे अगल हट के अगर देखा जाए तो समलैंगी संबंध समाज विरोधी और अनैतिक कृत्य है। यहां तक कि भारत के सोलिसीटर जनरल पीपी मल्होत्रा ने भी कहा है कि इससे समाज में गलत संदेश जाएगा और अनैतिकता फैलेगी। ठीक है कि इससे एड्स से लड़ने में इससे सहयोग मिलेगा, लेकिन इस प्रकार के कानून से इसका फैलाव भी होगा। अब शौकिया भी लोग इस प्रकार के कृत्य में शामिल होंगे। हमेशा से ही युवा समाज को हर वो चीज करने में मजा आता है जो लीक से हटकर हो। इससे एड्स का फैलाव ही होगा।

दर्शनशास्त्र में एक अहम विषय है धर्म और नैतिकता। इसमें यह बताया गया है कि धर्म की स्थापना इसलिए हुई ताकि समाज को नैतिक रखा जा सके। हर वो नैतिक नियम जो समाज को व्यवस्थित रखने के लिए जरूरी हैं उनको धर्म का हिस्सा बना दिया गया, ताकि लोग उसको मानने के लिए बाध्य हों। अगर हम स्वतंत्रता के नाम पर इस तरह से हर नैतिक नियमों को तोड़ते रहेंगे तो शायद हमारी सभ्यता वहीं पहुंच जाएगी जहां थे।

सभ्यता के विकास के तहत अगर हम गौर करें तो हम पाते हैं कि पहले लोग जानवरों की तरह रहते थे। न कोई परिवार था न सेक्स का ही कोई नियम था। इसलिए एक ही परिवार में शादियां होती थी और लोग कबायली जीवन जीते थे। इसलिए शुरुआती समय में घर गोलाकार होते थे। सब एक साथ रहते थे। उनके लिए सेक्स कोई निजी चीज नहीं थी। धीरे-धीरे हम पाते हैं कि घर चौकोर बनने लगे और घरों में दीवार उठने लगी। अब इंसान को यह समझ में आने लगा कि कुछ चीजें निजी होती हैं। फिर एक परिवार में शादियां बंद हुईं, फिर एक गोत्र में। इस प्रकार से एक परिवार, एक कुनबा तथा फिर समाज बना। यह मडिकली भी साबित हो गया है कि अगर निकट संबंधियों में वैवाहिक संबंध हो तो जीनेटीकली दोष उत्पन्न होता है। मुस्लिम समाज में यह देखा जाता है क्योंकि अभी भी वह कबायली तरीके से बाहर नहीं निकल पाए हैं। ये सब लिखने का मेरा मतलब सिर्फ इतना है कि समाजिक नियम ऐसे ही नहीं बन गए। ठीक है कुछ गलत नियम भी बने, जिसको समय के साथ खत्म कर दिया गया। लेकिन अभी भी कई नियम ऐसे हैं जो बहुत ही जरूरी हैं।

इसलिए मेरा यह मानना है कि समाज समलैंगिकता को महिमामंडित करना बंद करे। समलैंगी लोग बीमार लोग हैं, जिनको समाज के सहयोग की जरूरत है और हाईकोर्ट का फैसला इस रूप में स्वागत योग्य है। लेकिन समाज में सामान्य लोग इसको इस रूप में न लें जैसे कि जैसे एक नई व्यवस्था शुरू हुई हो। हालांकि अगर समाज उस ओर बढ़ता है तो मुझे कोई अचंभा नहीं होगा। सभ्यता के विकास के क्रम में एक थ्योरी साईक्लिक थ्योरी भी दी गई है। जिसमें कहा गया है कि जिस तेजी से सभ्यता का विकास होता है एक समय के बाद उसी तरह उसका पतन भी होता है। ठीक उसी प्रकार जैसे पहिए का एक हिस्सा ऊपर जाकर तेजी से नीचे गिरता है।

शुक्रवार, 20 फ़रवरी 2009

डार्विन का सवाल, सबका मालिक एक कैसे?

हमेशा से ही इंसान की खोजी दिमाग ने उन सब समस्याओं का समाधान ढूंढने का प्रयास किया जो परेशान करती हैं और उसमें बहुत हद तक सफल भी हुआ। यही कारण है कि मानव सभ्यता जंगल से निकल कर गांवों में और फिर शहरों तक पहुंच गई। लेकिन इन सबके बीच जिन समस्याओं को खोजने में मानव दिमाग सक्षम नहीं हुआ उसको ईश्वरीय कृपा, ईश्वर की लीला, जादू-टोना का नाम दे दिया। इन्हीं सवालों में से एक अहम सवाल है जीवन की शुरुआत कैसे हुई? हमेशा से दार्शनिकों ने इसका हल निकालने की कोशिश की। लेकिन सबका घूम-फिरकर एक ही जवाब आया कि किसी परम तत्व ने हमें बनाया है। उसी ने यह विश्व बनाया है और इसमें जीवों की रचना की है। उस परमतत्व को किसी ने ‘मोनड’ कहा, किसी ने ‘ब्रह्म’ कहा तो किसी ने ‘प्रत्यय’ कहा। लेकिन जीवन की यह धार्मिक व्याख्या एक व्यक्ति को खुश नहीं कर पाई और उसका परेशान मन निकल पड़ा इसकी खोज करने और जब वह इसकी खोज कर वापस आया तो जैसे पूरे विश्व में भूचाल आ गया, क्योंकि उन्होंने ‘सबको बनाने वाला एक है’ इसी पर सवाल उठाते हुए कहा कि जीवों का विकास वस्तुतः प्रकृति का विकासक्रम है और प्रकृति के विकास के साथ ही उससे सामंजस्य बिठाने के क्रम में कई जीव मिट गए और कई जीवों की उत्पति हुई। दुनिया को यह नवीन सिद्धांत देने वाला व्यक्ति था चाल्र्स डार्विन।

जी हां, चाल्र्स डारविन ने सबका मालिक एक है पर सवाल उठाते हुए अपनी किताब ‘ओरिजीन ऑफ स्पीसीज’(Origin Of the Speceis) में सवाल उठाते हुए `विकासवाद का सिद्धांत' (Theory Of Evolution) दिया। जिसमें उन्होंने बताया कि समय के साथ-साथ प्रकृति के साथ समन्वय करते हुए ही जीवन का विकास हुआ। 1831 में ‘बीगल’ नामक जहाज पर उन्होंने अपनी जिज्ञासा को पूरा करने के लिए 5 साल के सफर की शुरुआत की। अपनी इस सफर में वह अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, उत्तर अमेरिका, यूरोपीय देशों की यात्रा की। इन सभी जगहों की जैव विविधता को देखकर उनको आभास हुआ कि भिन्न-भिन्न प्राकृतिक स्थिति के हिसाब से ही जैव विविधता भी है। उन्होंने सवाल भी उठाया कि अगर सबका मालिक एक है तो एक ही जाति के पक्षी विभिन्न देशों में भिन्न-भिन्न क्यों हैं।

उन्होंने कहा कि वास्तव में हम मरने के बाद कहां जाते हैं इस पर सवाल तो उठाया जा सकता है लेकिन हम कैसे बने इस वैज्ञानिक तथ्य पर सवाल नहीं उठाया जा सकता। लेकिन धर्म और आस्था के नाम पर चलने वाली लाखों दुकानों को यह कैसे गवारा होता और शुरू हुआ विरोध का एक नया अध्याय। विकासवाद के सिद्धांत का विरोध करने वालों में एक अहम नाम है हरवर्ट स्पेंसर का जिन्होंने ‘सरवाइवल ऑफ द फीटेस्ट’ का सिद्धांत देकर डार्विन का विरोध किया। जिसमें उन्होंने कहा कि प्रकृति में जो फिट है वही जी सकता है। वस्तुतः डार्विन ने यह कभी नहीं कहा था कि बंदर से बना है इंसान। उन्होंने कहा था कि बंदर, इंसान और वनमानुस के पूर्वज एक ही थी। उन्होंने प्रकृति के साथ बेहतर तालमेल की बात की थी ताकि प्रकृति के साथ जीवन का एक अच्छा तालमेल बैठ सके। लेकिन औपनेवेशिक भूख को शांत करने में जुटे उस समय के सर्वाधिक यूरोपीय मुल्क को स्पेंसर की वह बात ही ज्यादा अच्छी लगी-सरवाइवल ऑफ द फिटेस्ट। हमारे देश में दलितों को किसी योग्य न समझने और दास प्रथा से लेकर महिलाओं की बुरी स्थिति के पीछे यही सोच काम कर रही है।

जहां डार्विन के विरोधी मौजूद हैं वहीं उनके समर्थकों की कमी नहीं है। कार्ल माक्र्स ऐसा ही एक नाम है। जिन्होंने धार्मिक मान्यताओं का खंडन करते हुए इसकी तुलना अफीम से की। जिस दासों एवं मजदूरों के शोषण के खिलाफ कार्ल माक्र्स ने झंडा बुलंद किया उन्हीं दासों की दयनीय स्थिति देखकर डार्विन का भी दिल पसीज गया था। जहां डार्विन ने विकासवाद का सिद्धांत दिया वहीं कार्ल माक्र्स ने सामाजिक विकास की वैज्ञानिक व्याख्या प्रस्तुत की। दासों के शोषण के खिलाफ अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने भी जोरदार संघर्ष किया। यह भी एक अजीब संयोग है कि लिंकन और डार्विन एक ही दिन पैदा हुए थे।

डार्विन के सिद्धांत का विरोध और समर्थन अभी भी जारी है। धार्मिक मान्यता और विकासवाद के सिद्धांत के समर्थकों और विरोधियों के बीच कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्होंने दोनों ही जगह अपना स्थान बना लिया है। यह हर जगह दिख जाता है। यही कारण है कि चंद्र मिशन से पहले वैज्ञानिक नारियल फोड़ते हैं, ऑपरेशन करने से पहले डॉक्टर ईश्वर के आगे हाथ जोड़ते हैं। आपको हर अस्पताल के अंदर या उसके ठीक सामने एक पूजा स्थल जरूर मिल जाएगा। और सबसे महत्वपूर्ण यह कि यहां अल्लाह, राम, ईसू और नानक सब एक हो जाते हैं। आप इन सबको एक ही कमरे में एक दूसरे के आस पास देख सकते हैं। वास्तव में यह विज्ञान और विकास का मेल है। अब लोग धार्मिक मान्यताओं के साथ-साथ वैज्ञानिक खोजों को भी अहमियत देते हैं। इसका कारण एक तो यह है कि विज्ञान ने लोगों के जीवन को आसान बनाया है और कई समस्याओं को दूर किया है और दूसरा लोगों के सामने अभी भी कई समस्याएं हैं जिसका उत्तर विज्ञान के पास नहीं है। वह सवाल जस का तस बना हुआ है कि हम मरने के बाद कहां जाते हैं। इस प्रश्न का उत्तर जब मिलना होगा मिल जाएगा लेकिन दुनिया के बारे में एक नवीन दृष्टि देने वाले डार्विन और उनके विकासवाद के सिद्धांत को सलाम।

शनिवार, 17 जनवरी 2009

‘स्लमडॉग...’ पर क्यों करें वाह-वाह!

स्लमडॉग मिलियनेयर को मिली सफलता पर पूरा देश झूम उठा। सबसे खुशनुमा पहलू यह है कि पहली बार किसी भारतीय संगीतकार (एआर रहमान) को गोल्डन ग्लोब पुरस्कार से नवाजा गया। लेकिन इन सबके बाद भी वह किसी को नहीं दिखा जो बिग बी अमिताभ बच्चन को दिखा। वह है भारत की स्याह छवि जो इस फिल्म में दिखाई गई है। क्या भारत सचमुच सिर्फ ऐसा ही है? क्या विदेशों में गरीबी और भूखमरी नहीं है? अगर हां तो क्यों पश्चिम को वही भारतीय चीज अच्छी लगती है जो भारत का काला पक्ष दिखाता प्रतीत होता है। वास्तव में इसपर सोचने की जरूरत है।

वास्तव में यह आज की बात नहीं है। शुरू से ही वही भारतीय फिल्में पश्चिम में सराही गई जिसमें रोता बिलखता, भ्रष्ट, एक-एक निवाले के लिए मोहताज भारत की छवि को दिखाया गया। सत्यजीत रे ने इसी मजबूर भारत को दिखाकर पश्चिम में वाहवाही लूटी। उन पर यह आरोप भी लगता है कि उन्होंने भारत की गरीबी को पश्चिम में बेचने का काम किया। अपनी कमियों को दिखाना और समझना कोई गलत बात नहीं है, लेकिन उसको बेचने के लिए दूसरों को परोसना बिल्कुल ही निंदनीय है। ठीक है कि भारत में अभी कई समस्याएं मुंह बाए खड़ी हैं, ठीक है अभी बहुत बड़ा तबका सुविधाविहीन है, लेकिन उन्हीं के अंदर वह जोश और जज्बा भी विद्यामान है, जो शायद गरीबी को बेचने वालों को नहीं दिखता। जरूरत उसको दिखाने की है।

अगर ऐसा नहीं है तो जाइए और उन गरीब झोपड़ियों के भीतर झांकिए। अंधेर झोंपड़ी से भी आपको वह अट्टाहास सुनाई देगा जिसके लिए शायद महलों में रहने वाले भी तरसें। यह अट्टाहास कोई करुण व्यथा नहीं है, बल्कि जीवन जीने की कला है। वह जज्बा है जो यह सिखाता है कि जीवन जीने का नाम है। अमिताभ बच्चन ने सही ही कहा कि बॉलीवुड एक बहुत बड़ा बाजार है, जिसमें कई मनोरंजक फिल्में बनती हैं, लेकिन उसकी तरफ किसी का ध्यान नहीं गया। उनको वही फिल्में पसंद आती हैं जिसमें भारत की स्याह छवि दिखती है। ऑस्कर में टॉप-5 में गई उन भारतीयों फिल्मों की तरफ गौर करें तो यह तस्वीर और साफ हो जाएगी। अब तक तीन भारतीय फिल्म टॉप-5 में अपना स्थान बनाने में कामयाब हुईं हैं वह है सलाम बंबई, मदर इंडिया और लगान। यह तीनों ही फिल्में मजबूर, गरीब भारत की ही छवि को दिखाती है।

अब उन साहित्यों की तरफ भी गौर करें जो अब तक विदेशों में चर्चित और पुरस्कृत हुईं हैं। अब तक मान बुकर पुरस्कार से सम्मानित भारतीय पुस्तकों में अरुंधती राय की The God Of Small Things, किरण देसाई की Inheritence Of Loss और हाल ही में अरविंद अडिगा की White Tiger। इन सब किताबों की विषयवस्तु मजबूर, भ्रष्ट, पिछड़ा भारत ही है। इन सब लेखकों ने साहित्य की दुनिया में वही किया जो फिल्मों की दुनिया में सत्यजीत रे ने किया और अगर इन्होंने ऐसा नहीं भी किया तो पश्चिम ने इनको इसलिए सराहा क्योंकि इनमें भारत को वैसा ही दिखाया गया है जैसा वो देखना चाहते हैं।

White Men's Burden की गलतफहमी से लगता है पश्चिम अभी पूरी तरह नहीं उबर पाया है। इस थ्योरी की सहायता से पश्चिम तीसरी दुनिया में अपने शोषणकारी शासन को न्यायसंगत ठहराने की कोशिश करता था, जिसमें कहा गया था कि तीसरी दुनिया के पिछड़े और बर्बर समाज को सभ्य बनाने का जिम्मा उनका है इसलिए उनका शासन जरूरी है। उनका शासन तो चला गया लेकिन अभी तक उनकी दूसरे देशों को पिछड़ा देखने की आदत गई नहीं है। हिंदी में एक बड़ी अच्छी कहावत है ‘रस्सी जल गई पर बल नहीं गया’ उनपर बिल्कुल सटीक बैठती है।

अब एक बार फिर स्लमडॉग मिलियनेयर पर आइए। यह फिल्म विकास स्वरूप के नोवेल Q & A पर आधारित है। इस किताब का मुख्य पात्र राम मोहम्मद थॉमस है। जिसको यह नाम इसलिए दिया गया क्योंकि उसके धर्म को लेकर विवाद खड़ा हो गया। इसलिए तीनों धर्मों को साथ लेते हुए उसका नाम राम मोहम्मद थॉमस रखा गया। लेकिन फिल्म में इसको बना दिया गया जमाल मलिक, जिसकी मां को हिंदू दंगाईयों ने मार दिया। आखिर क्यों? शायद इसलिए कि भारत की काली छवि दिखाकर ही पश्चिम को प्रभावित किया जा सकता था। जरूरत इसी सोच से निकलने की है।

ऐसे में यह हमारी जिम्मेवारी बनती है कि हम भारत की ऐसी छवि को दिखाना बंद करें। यह जिम्मेवारी सबसे अधिक उनलोगों की है जो अब भी बाजार को ध्यान में रखकर काम करते हैं। अब भारत बदल गया है। अब एक भारतीय (सुनील मित्तल) ब्रिटेन में जाकर प्रधानमंत्री आवास के पास एक महल खरीदने की हैसियत रखता है। अब एक भारतीय (बॉबी जिंदल) अमेरिका में जाकर सीनेटर बनने का माद्दा रखता है। भारतीय ज्ञान से तो पूरा पश्चिम स्तब्ध है, जो वहां जाकर अपनी काबिलियत का परचम लहरा रहा है। जो साहित्यकार भारत की भद्दी छवि को दिखाते हैं उनको यह भी ध्यान रखना चाहिए कि जो विदेशी इमदाद और निवेश हमारे यहां हो रहे हैं वह उनकी भारत की स्याह छवि को दिखाने के कारण नहीं है, बल्कि यह भारत की खुद की बढ़ती हैसियत है। अब भारत वह भारत नहीं रहा। इसलिए फिल्मकारों को तथा साहित्यकारों को चाहिए कि वह भी अपनी सोच बदलें। इसका मतलब यह कतई नहीं है कि हम अपनी समस्याओं को देखना बंद कर दें। हम जरूर देखें लेकिन उसको बेचें नहीं। हम उन किताबों को तरजीह दें जिसमें करुण सिसक के साथ एक मुस्कान की आस भी दिखे, काली अंधेरी रात के बाद सुहावनी सुबह भी दिखे।

यह विडंबना है कि भारत की समस्या पर लिखी पुस्तक भारत में प्रसिद्ध होने की बजाय विदेशों में प्रसिद्ध हो जाती है और अवार्ड जीतती है। यह शायद इसलिए कि वह वहीं के लिए लिखी जाती हैं। मुझे नहीं लगता कि भारत में जिन किताबों को साहित्य अकादमी पुरस्कार, सरस्वती सम्मान, व्यास सम्मान आदि से पुरस्कृत किया जाता है उनको पढ़ने की भी जहमत उठाते होंगे, कई लोग तो इन पुरस्कारों के नामों से भी वाकिफ नहीं होंगे, ऐसा क्यों है..........आप बेहतर जानते हैं।

मंगलवार, 6 जनवरी 2009

जल्द ही "गांधी" हो जाएंगे "गैंधी"

मैं पिछले कुछ दिनों से एक प्रयोग कर रहा हूं। प्रयोग कुछ ऐसा कि जिससे पता चले कि हम हिन्दुस्तानी किसी की कॉपी करने में कितने उस्ताद होते हैं। पहले मैं आपको यह बता दूं कि यह प्रयोग है क्या।

मैं अपने मित्रों या जहां कहीं भी मौका मिलता है एक सवाल पूछता हूं। मैं उनसे कहता हूं कि राम ने रावण को मारा, इसको इंग्लिश में बोलो। और वे बिना एक मिनट भी लिए बोलते हैं "रावणा" किल्ड बाय "रामा" मुझे पता है कि आपमें से कई लोग सोच रहे होंगे कि इसमें गलत क्या है।

यह तकनीकी रूप से गलत तो है ही साथ ही हिन्दुस्तानियों की कॉपी करने की आदत का भी जबरदस्त उदाहरण है। क्योकि अंग्रेज राम या रावण नहीं बोल पाते इसलिए वो रामा और रावणा बोलेंगे तो हम भी ऐसा ही करेंगे। और ऐसा हो भी क्यों नहीं हमारे यहां ही तो डुप्लीकेट बनने का फैशन जो है। हमारे यहां हर लोकप्रिय शख्सियत का कोई न कोई डुप्लीकेट जरूर मिल जाता है। अब क्योंकि अंग्रेजी अपनी भाषा तो है नहीं इसलिए वो जैसा बोलते है वैसा ही बोलो, जैसा वो करते हैं वैसा ही करो। मैं यहां करने के बारे में ज्यादा नहीं लिखूंगा नहीं तो विषय से भटक जाउंगा।

इस तकनीकी खामी के साथ आम आदमी बोलें तो समझ में आता है, लेकिन हमारे भारतीय न्यूज चैनल भी कुछ ऐसा ही करते हैं। ए रिपोर्ट फ्रॉम "बरखा" को बोलेंगे ए न्यूज रिपोर्ट फ्रॉम "बारखा"। इसी तरह इंग्लिश न्यूज चैनल के लिए कसाब हो गया "कसब।

किसी नई भाषा को हम अपने सहूलियत के लिए सीखते हैं, न कि अपनी खुद की जुबान बिगाड़ने के लिए। नाम का उसी तरह से उच्चारण होना चाहिए जैसा कि वो है। इसलिए राम, राम हैं न कि रामा। इससे किसी को इनकार नहीं हो सकता कि इंग्लिश हमारी भाषा नहीं है, लेकिन आज के समाज में यह बहुत ही उपयोगी है। खासकर भारत जैसे बहुभाषी देश के लिए जहां हर तीन किमी पर बोली बदल जाती है वहां कोई ऐसी भाषा जरूर होनी चाहिए जो सब समझ सकें और सब बोल सकें। हिंदी ने इस रूप में काफी प्रगति की है लेकिन इंग्लिश के ग्लोबल होने और रोजगारोन्मुख होने से इसकी उपयोगिता और भी बढ़ जाती है। यह अलग बात है कि हिन्दी को भी इस रूप में प्रचारित किया जा सकता था। आप अगर फ्रांस, इटली, जर्मनी, रुस जाएं तो आपको वहां बात करने के लिए उनकी भाषा को सीखना पड़ेगा। मेरा एक दोस्त कुछ दिनों पहले फ्रांस गया था और वह बताता है कि वहां बस एक दो न्यूज चैनल इंग्लिश में है नहीं तो सारे फ्रेंच चैनल हैं। यह होता है अपनी भाषा से लगाव।

लेकिन भारत में ऐसी आशा नहीं कि जा सकती। जब यूरोप में राष्ट्रों का एकीकरण हुआ तो इसका आधार ही या तो भाषा बनी या एक जाति। राष्ट्र की परिकल्पना ही यूरोप में इसी तरह से विकसित हुई। राष्ट्र का मतलब एक जाति, एक धर्म और एक भाषा। लेकिन भारत जैसे बहुसांस्कृतिक, बहुभाषी और बहुधर्मी देश में ऐसा सोचना भी मूर्खता होगी। लेकिन कम से कम हिंदी को मिली राष्ट्रीय भाषा के दर्जे का सम्मान तो करना ही चाहिए। मेरा यह सब लिखने का यह कतई ही उद्देश्य नहीं है कि मैं इंग्लिश विरोधी हूं, इंग्लिश बोलें लेकिन हिन्दुस्तानियों की तरह। मैं हिन्दुस्तानी इसलिए भी कह रहा हूं कि दक्षिण भारतीय लोग इंग्लिश दक्षिण भारतीयों की तरह बोलें, उत्तर भारतीय, उत्तर भारतीयों की तरह न कि अमेरिकी और ब्रिटिशर्स की तरह। कम से कम जो चीज बिल्कुल ही हिन्दुस्तानी है और हिन्दुस्तानी ही उसको जानते हैं कि कैसे बोला जाए वह तो बिल्कुल भी नहीं। नहीं तो वह दिन दूर नहीं जब भारतीयों के लिए भी गांधी हो जाएंगे गैंधी जैसे कि गांगुली हो गए गैंगुली, बरखा हो गई बारखा, कसाब हो गया कसब, द्रविड गए द्राविड। अब आप कहिए..............

मंगलवार, 5 अगस्त 2008

अहमदाबाद विस्फोट और `पेज थ्री'

जब मधुर भंडारकर ने पेज थ्री फिल्म बनाई थी तो पेज थ्री के पेज की शोभा बढ़ाने वाले लोगों ने उसमें दिखाए गए कुछ चीजों पर आपत्ति की थी और कहा था कि ऊंची सोसोयटी इतनी भी संवेदना शून्य नहीं है। लेकिन अहमदाबाद विस्फोट ने पेज थ्री को वास्तविकता में ही चरितार्थ कर दिया। हालांकि ऐसा पहले भी होता होगा लेकिन इस ताजा घटनाक्रम ने फिर से यह साबित कर दिया कि संवेदनशून्यता किस हद तक ऊंची सोसायटी को घर करती जा रही है।

अहमदाबाद में बम विस्फोट की एक जगह पर जहां मृतकों के शव को उठाने और घायलों को अस्पताल पहुंचाने की अफरा-तफरी मची थी, वहां से बस कुछ कदम की दूरी पर एक होटल में लोग मुर्गा तोड़ने में मशगूल थे। इतना ही नहीं वे वीडियो फुटेज को देखकर ऐसे कर रहे थे जैसे कुछ हुआ ही नहीं है। यह सब अहमदाबाद से दूर दिल्ली या किसी और शहर में होता तो कोई बात नहीं थी। गुजरात के ही किसी शहर में अगर यह सब हुआ होता तो क्षम्य था, लेकिन यह सब हुआ ऐसी जगह जो घटनास्थल से बस कुछ कदम की दूरी पर था।

मैं नहीं कहता कि सबकुछ छोड़कर इंसान को दुख मनाने में लग जाना चाहिए, इससे तो जीवन में ठहराव आ जाएगा, और जीवन तो चलने का नाम है। लेकिन ऐसी वीभत्स घटना के समय भी इस प्रकार का व्यवहार निश्चित ही संवेदनशून्यता को दरसाता है।

एक दूसरी घटना पर भी गौर फरमाइए। इसको तो आप सबने टीवी पर जरूर सुना होगा कि कैसे विस्फोट की खबर सुनकर दो युवक घायलों को मदद करने भागे। घायलों को अस्पताल भी पहुंचाया, लेकिन अस्पताल में हुए धमाकों में उन दोनों युवकों की मृत्यु हो गई। दोनों ही अपने माता-पिता के इकलौती संतान थे। एक ही समय यह तो प्रकार का व्यवहार का क्या कारण है। आखिर हैं तो हम सब इंसान ही। वस्तुतः यह वर्गीय चेतना है औऱ कुछ नहीं। मदद के लिए वही दौड़ते हैं जिनको लगता है कि मरने वाले उन्हीं में से एक हैं। यह दोनों युवक इसलिए दौड़कर गए क्योंकि घायलों और मृतकों में कहीं न कहीं उन्हें अपना ही परिवार दिखा। जबकि होटल में बैठकर शाही खाना खाने वाले जबकि बाहर लाशें बिछीं हों उनको ऐसा कुछ भी नहीं दिखा जिससे उन्हें जुड़ाव महसूस हो सके।

यह बड़ी ही अजीब बात है कि आखिर जब भी संवेदनशून्यता की बात आती है तो ऊंच वर्ग ही कटघरे में क्यों खड़े होते हैं। वस्तुतः यह शायद ऊंचे इसलिए हैं क्योंकि ये संवेदनशून्य हैं। आगे बढ़ने के लिए संवेदनहीनता की ही जरूरत होती है। कईयों का शोषण कर तथा प्रोफेशनलिज्म के आधार पर दूसरे को यूज कर ही वे ऊंचे उठे हैं।

वस्तुतः यह वर्गीय चेतना ही है जिसके आधार पर यह व्यवहार करते हैं। साम्यवाद के प्रवर्तक कार्ल माक्स ने कहा था कि हमेशा से ही समाज दो वर्गों में बंटा रहा है। पहले मालिक-दास, उसके बाद भूमिपति-भूमिहीन उसके बाद पूंजीपति-श्रमिक। भारतीय समाज तो इससे एक कदम आगे जाति के आधार पर विभाजित हुआ। समय-समय पर यही वर्गीय विभाजन इस तरह की चीजों में परिलक्षित हो जाता है। लेकिन जब देश की बात आए, इंसानी मूल्यों की बात आए, इंसानी जानों की बात आए तो इस वर्गीय चेतना से ऊपर उठकर सोचना चाहिए। श्रीमदभगवतगीता में कहा गया है कि इंसान मूलतः एक शुद्ध प्राणी है, लेकिन इनलोगों को देखकर तो लगता है कि इसपर से भी भरोसा उठाना पड़ेगा।

रविवार, 27 जुलाई 2008

कैसे भूलें वह मंजर

जब-जब सीरियल ब्लास्ट होते हैं तो लोग मारे जाते हैं, सरकार जांच करवाने में जुट जाती है, मरने वालों और घायलों के लिए मआवजा घोषित किया जाता है और कुछ दिनों में सबकुछ समान हो जाता है। लेकिन इन आतंकी हमलों में जो मानवीय संवेदनाएं टूटती हैं, उसकी भरपाई कभी नहीं हो पाती।

प्रत्येक हमले में कई ऐसे वाकये सामने आते हैं, जिसको सुनकर दिल दहल जाता है। अहमदाबाद में हुए आतंकी हमले का ही उदाहरण ले लें। अस्पताल में एक बच्च जीवन और मौत से जूझ रहा है और अपनी मम्मी को ढूंढ रहा है। लेकिन उसको पुचकारने और चुप कराने के लिए उसकी मां और पिता में से कोई नहीं है। उसके माता-पिता दोनों धमाकों में मारे गए हैं। उसका एक बड़ा भाई है, वह भी धमाकों के कारण बुरी तरह से घायल अस्पताल में ही पड़ा है। उसी तरह एक बूढ़े पिता के दिल का दर्द सुने। उसका जवान बेटा धमाकों में मारा गया है। लेकिन उनमें इतनी हिम्मत नहीं है कि वह अपने बेटे की लाश को जाकर ले आएं। जब उनसे पूछा गया कि उनका बेटा कहां है, तो बस वह फूट-फूटकर रो पड़ते हैं।

मन को दहला देने वाले कई ऐसी घटनाएं हैं, जिसके बारे में बस कहा और लिखा ही जा सकता है। सीमा पर लड़ने वाले जवानों को दो पता होता है कि हमला किधर से होगा। उनके पास लड़ने के लिए हथियार भी होता है। लेकिन इन आम इसानों को क्या, जिनको न तो पता होता है कि हमला किधर से होगा और न ही उनको पता होता है कि उन्हें लड़ना किससे है। बिना लड़े ही देश के दुश्मनों के हाथों शहीद हुए इन जांबाजों को सलाम।

सोमवार, 7 जुलाई 2008

अब मां-बाप की भी आउटसोर्सिंग

पहले नौकरियां, उसके बाद स्वास्थ्य सेवा, जिसके तहत हजारों की संख्या में ब्रिटेन के लोग भारत आकर इलाज कराना ज्यादा बेहतर समझते हैं। और अब बारी है मां-बाप के आउटसोर्सिग की। इन सब का कारण एक ही है पैसे की बचत।

हाल ही में एक ब्रिटेन के परिवार ने अपने माता-पिता को गोवा के एक वृद्धा आश्रम में भेज दिया, क्योंकि यहां पर उनकी देख-रेख में आने वाला खर्च ब्रिटेन में आने वाले खर्च के काफी कम है। इसी तरह न्यूयार्क के एक परिवार ने जो पिछले तीन साल से अपने माता-पिता की देखरेख वहीं न्यूयार्क में कर रहे थे, अब पैसे का बोझ कम करने के लिए उन्हें भारत स्थांनांतरित करने का फैसला किया है। इन जैसे ही पता नहीं कितने ही लोग अपने मां-बाप को ढ़लती उम्र में देश निकाला देने की तैयारी कर रहे हैं।

जनरल मेडिकल काउंसिल के अध्यक्ष शिव पांडे कहते हैं कि यह कोई नई बात नहीं है। ब्रिटेन में रहने वाले अधिकतर भारतीय वृद्धावस्था में रिटायरमेंट के बाद भारत ही आकर रहना पसंद करते हैं। लेकिन इन दोनों ही बातों में एक अंतर है। जो भारतीय विदेश गए हैं, उनका उद्देश्य बाहर जाकर पैसे कमाना होता है, इसलिए जब पैसे कमाने के मौके खत्म हो जाते हैं तो वे अपने देश ही आकर रहना पसंद करते हैं। कई भारतीय तो 10 या 20 सालों में ही अपने देश आ जाते हैं।

लेकिन वे विदेशी लोग जो अपने मां-बाप को बाहर भेजना चाहते हैं उनका मात्र उद्देश्य पैसा बचाना ही है। कोई भी मां-बाप अपना अंतिम समय अपने बच्चों के साथ रहकर गुजारना चाहते हैं। उनके अपने बच्चे अपने साथ रखना तो छोड़िए वे तो उन्हें उनके देश से ही बाहर निकाल रहे हैं।

हो भी क्यों नहीं आज के पूंजीवादी समाज में जहां हर संबंध पैसे पर तय होते हैं, वहां किसी के प्रति मानवीय संवेदना की आशा करना ही व्यर्थ है। जरूरत पूरी, संबंध खत्म। अब मां-बाप के साथ भी लोग फायदे और नुकसान को देखते हुए संबंधों को रखने लगे हैं। यही तो है आज का प्रोफेशनलिज्म।

अपने भी देश में स्थिति कोई बहुत अच्छी नहीं है। आए दिन खबर आती रहती है कि बेटों ने मां-बाप को घर से निकाला। अगर घर से नहीं भी निकाला तो उनकी स्थिति अपने ही घर में बड़ी ही दयनीय हो जाती है। भारत में भी लोगों में अकेले रहने की प्रवृति बढ़ी है। यही कारण है कि यहां भी वृद्धाश्रमों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। अगर आने वाले दिनों में भारतीय भी अपने मां-बाप को नेपाल या कोई अन्य गरीब अफ्रीकी देशों में आउटसोर्स कर दें तो हैरान मत होईएगा।

इस मौके पर तो मुझे निदा फाजली की कुछ लाइनें याद आ रही हैं जो उन्होंने `मां' नामक कविता में लिखी थी -
बीवी, बेटी, बहन, पड़ोसन,
थोड़ी-थोड़ी सी सब में,
दिन भर एक रस्सी के ऊपर,
चलती नटनी जैसी मां।
बांट के अपना चेहरा माथा,
आंखें जाने कहां गई,
फटे-पुराने एक एलबम में,
चंचल लड़की जैसी मां।