मंगलवार, 5 अगस्त 2008

अहमदाबाद विस्फोट और `पेज थ्री'

जब मधुर भंडारकर ने पेज थ्री फिल्म बनाई थी तो पेज थ्री के पेज की शोभा बढ़ाने वाले लोगों ने उसमें दिखाए गए कुछ चीजों पर आपत्ति की थी और कहा था कि ऊंची सोसोयटी इतनी भी संवेदना शून्य नहीं है। लेकिन अहमदाबाद विस्फोट ने पेज थ्री को वास्तविकता में ही चरितार्थ कर दिया। हालांकि ऐसा पहले भी होता होगा लेकिन इस ताजा घटनाक्रम ने फिर से यह साबित कर दिया कि संवेदनशून्यता किस हद तक ऊंची सोसायटी को घर करती जा रही है।

अहमदाबाद में बम विस्फोट की एक जगह पर जहां मृतकों के शव को उठाने और घायलों को अस्पताल पहुंचाने की अफरा-तफरी मची थी, वहां से बस कुछ कदम की दूरी पर एक होटल में लोग मुर्गा तोड़ने में मशगूल थे। इतना ही नहीं वे वीडियो फुटेज को देखकर ऐसे कर रहे थे जैसे कुछ हुआ ही नहीं है। यह सब अहमदाबाद से दूर दिल्ली या किसी और शहर में होता तो कोई बात नहीं थी। गुजरात के ही किसी शहर में अगर यह सब हुआ होता तो क्षम्य था, लेकिन यह सब हुआ ऐसी जगह जो घटनास्थल से बस कुछ कदम की दूरी पर था।

मैं नहीं कहता कि सबकुछ छोड़कर इंसान को दुख मनाने में लग जाना चाहिए, इससे तो जीवन में ठहराव आ जाएगा, और जीवन तो चलने का नाम है। लेकिन ऐसी वीभत्स घटना के समय भी इस प्रकार का व्यवहार निश्चित ही संवेदनशून्यता को दरसाता है।

एक दूसरी घटना पर भी गौर फरमाइए। इसको तो आप सबने टीवी पर जरूर सुना होगा कि कैसे विस्फोट की खबर सुनकर दो युवक घायलों को मदद करने भागे। घायलों को अस्पताल भी पहुंचाया, लेकिन अस्पताल में हुए धमाकों में उन दोनों युवकों की मृत्यु हो गई। दोनों ही अपने माता-पिता के इकलौती संतान थे। एक ही समय यह तो प्रकार का व्यवहार का क्या कारण है। आखिर हैं तो हम सब इंसान ही। वस्तुतः यह वर्गीय चेतना है औऱ कुछ नहीं। मदद के लिए वही दौड़ते हैं जिनको लगता है कि मरने वाले उन्हीं में से एक हैं। यह दोनों युवक इसलिए दौड़कर गए क्योंकि घायलों और मृतकों में कहीं न कहीं उन्हें अपना ही परिवार दिखा। जबकि होटल में बैठकर शाही खाना खाने वाले जबकि बाहर लाशें बिछीं हों उनको ऐसा कुछ भी नहीं दिखा जिससे उन्हें जुड़ाव महसूस हो सके।

यह बड़ी ही अजीब बात है कि आखिर जब भी संवेदनशून्यता की बात आती है तो ऊंच वर्ग ही कटघरे में क्यों खड़े होते हैं। वस्तुतः यह शायद ऊंचे इसलिए हैं क्योंकि ये संवेदनशून्य हैं। आगे बढ़ने के लिए संवेदनहीनता की ही जरूरत होती है। कईयों का शोषण कर तथा प्रोफेशनलिज्म के आधार पर दूसरे को यूज कर ही वे ऊंचे उठे हैं।

वस्तुतः यह वर्गीय चेतना ही है जिसके आधार पर यह व्यवहार करते हैं। साम्यवाद के प्रवर्तक कार्ल माक्स ने कहा था कि हमेशा से ही समाज दो वर्गों में बंटा रहा है। पहले मालिक-दास, उसके बाद भूमिपति-भूमिहीन उसके बाद पूंजीपति-श्रमिक। भारतीय समाज तो इससे एक कदम आगे जाति के आधार पर विभाजित हुआ। समय-समय पर यही वर्गीय विभाजन इस तरह की चीजों में परिलक्षित हो जाता है। लेकिन जब देश की बात आए, इंसानी मूल्यों की बात आए, इंसानी जानों की बात आए तो इस वर्गीय चेतना से ऊपर उठकर सोचना चाहिए। श्रीमदभगवतगीता में कहा गया है कि इंसान मूलतः एक शुद्ध प्राणी है, लेकिन इनलोगों को देखकर तो लगता है कि इसपर से भी भरोसा उठाना पड़ेगा।