गुरुवार, 2 जुलाई 2009

समलैंगिकता को महिमामंडित न करें

आज दिल्ली हाईकोर्ट ने समलैंगिकता को अपराध के दायरे से बाहर निकाल दिया और इसे जायज करार दिया। इस फैसले के साथ ही समलैंगी लोगों में खुशी की लहर दौड़ गई। हो भी क्यों नहीं आखिर उनको समाज की मुख्य धारा में आने का मौका मिला। लेकिन इस फैसले के बाद एक खास बात जो मुझे आकर्षित करती है वह यह है कि इससे लोगों में गजब का उत्साह है। वो इस पर खुश हो रहे हैं, जैसे कि यह बहुत ही जायज काम है और यह होना चाहिए।

सबसे पहली बात तो यह है कि यह एक अप्राकृतिक कार्य है इससे किसी को भी गुरेज नहीं होना चाहिए। अगर कोर्ट ने यह फैसला दिया है तो इसका मतलब सिर्फ इतना है कि जिन लोगों के साथ प्रकृति ने अन्याय किया है अब उनको भी समाज की मुख्यधारा में आने का मौका मिलेगा। इस प्रकार के बीमार लोगों को भी हक है कि उनको वो सभी स्वास्थ्य सेवा मिले जिससे वो महरूम होते आ रहे हैं। इसका कारण सिर्फ इतना था कि अभी तक यह अपराध था, जिसके कारण ये पुलिस के डर से किसी बीमारी कि स्थिति में भी डॉक्टर के पास से जाने से बचते रहते थे। इस रूप में मुझे इस कानून का स्वागत करने में कोई परेशानी नहीं है।

मुझे परेशानी इस बात से है कि चैनलों ने इतिहास पलटकर दिखाने की कोशिश की जैसे कि यह सबका जन्म सिद्ध अधिकार है और जैसे कि इसमें पूरा समाज ऐतिहासिक काल से लिप्त रहा हो। साथ ही बॉलीवुड फिल्मों का उदाहरण दिया जाने लगा जैसे कि ये फिल्में ही जिंदगी का रास्ता तय करती हों। ये ठीक है कि मनुस्मृति और कामसूत्र में इसके बारे में उल्लेख है, जिसका कि सभी चैनलों ने उल्लेख किया लेकिन साथ ही इसमें इसको अनैतिक और अप्राकृतिक भी करार दिया है, इसको चैनलों ने एडिट कर दिया। और सबसे बड़ी बात इतिहास में अगर किसी बात का जिक्र है तो इसका मतलब यह नहीं है कि वह सर्वमान्य है। अगर ऐसा है तो मैं एक उदाहरण देता हूं, जो तुलसीदास की रामायण में है। उन्होंने लिखा हैः-

ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी,
ये सब है तारण के अधिकारी।।

इसको भी मानिए। मेरा कहने का मतलब यह है कि इतिहास में कई अच्छी और गलत बातों का जिक्र है। उसको हमें उसी रूप में लेना चाहिए। समलैंगिकता के समर्थक लोग ये भूल जाते हैं कि आज अगर समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से निकाला गया है तो इसलिए नहीं की यह बहुत ही अच्छा है। यह सिर्फ इसलिए है कि समलैंगी लोगों में एड्स के खतरे से बचाया जा सके। धारा-377 को खत्म करने की याचिका दायर करने वाली संस्था नाज फाउंडेशन एड्स के खिलाफ लड़ने वाली एक संस्था है। मेडिकली भी यह साबित हो गया है कि अप्राकृतिक यौन संबंध में एड्स का खतरा प्राकृतिक यौन संबंध से कहीं ज्यादा होता है। इसलिए इस कानून में सुधार जरूरी है ताकि वो खुले आम समाज के सामने आ सकें और स्वास्थ्य सेवा ले सकें।

इससे अगल हट के अगर देखा जाए तो समलैंगी संबंध समाज विरोधी और अनैतिक कृत्य है। यहां तक कि भारत के सोलिसीटर जनरल पीपी मल्होत्रा ने भी कहा है कि इससे समाज में गलत संदेश जाएगा और अनैतिकता फैलेगी। ठीक है कि इससे एड्स से लड़ने में इससे सहयोग मिलेगा, लेकिन इस प्रकार के कानून से इसका फैलाव भी होगा। अब शौकिया भी लोग इस प्रकार के कृत्य में शामिल होंगे। हमेशा से ही युवा समाज को हर वो चीज करने में मजा आता है जो लीक से हटकर हो। इससे एड्स का फैलाव ही होगा।

दर्शनशास्त्र में एक अहम विषय है धर्म और नैतिकता। इसमें यह बताया गया है कि धर्म की स्थापना इसलिए हुई ताकि समाज को नैतिक रखा जा सके। हर वो नैतिक नियम जो समाज को व्यवस्थित रखने के लिए जरूरी हैं उनको धर्म का हिस्सा बना दिया गया, ताकि लोग उसको मानने के लिए बाध्य हों। अगर हम स्वतंत्रता के नाम पर इस तरह से हर नैतिक नियमों को तोड़ते रहेंगे तो शायद हमारी सभ्यता वहीं पहुंच जाएगी जहां थे।

सभ्यता के विकास के तहत अगर हम गौर करें तो हम पाते हैं कि पहले लोग जानवरों की तरह रहते थे। न कोई परिवार था न सेक्स का ही कोई नियम था। इसलिए एक ही परिवार में शादियां होती थी और लोग कबायली जीवन जीते थे। इसलिए शुरुआती समय में घर गोलाकार होते थे। सब एक साथ रहते थे। उनके लिए सेक्स कोई निजी चीज नहीं थी। धीरे-धीरे हम पाते हैं कि घर चौकोर बनने लगे और घरों में दीवार उठने लगी। अब इंसान को यह समझ में आने लगा कि कुछ चीजें निजी होती हैं। फिर एक परिवार में शादियां बंद हुईं, फिर एक गोत्र में। इस प्रकार से एक परिवार, एक कुनबा तथा फिर समाज बना। यह मडिकली भी साबित हो गया है कि अगर निकट संबंधियों में वैवाहिक संबंध हो तो जीनेटीकली दोष उत्पन्न होता है। मुस्लिम समाज में यह देखा जाता है क्योंकि अभी भी वह कबायली तरीके से बाहर नहीं निकल पाए हैं। ये सब लिखने का मेरा मतलब सिर्फ इतना है कि समाजिक नियम ऐसे ही नहीं बन गए। ठीक है कुछ गलत नियम भी बने, जिसको समय के साथ खत्म कर दिया गया। लेकिन अभी भी कई नियम ऐसे हैं जो बहुत ही जरूरी हैं।

इसलिए मेरा यह मानना है कि समाज समलैंगिकता को महिमामंडित करना बंद करे। समलैंगी लोग बीमार लोग हैं, जिनको समाज के सहयोग की जरूरत है और हाईकोर्ट का फैसला इस रूप में स्वागत योग्य है। लेकिन समाज में सामान्य लोग इसको इस रूप में न लें जैसे कि जैसे एक नई व्यवस्था शुरू हुई हो। हालांकि अगर समाज उस ओर बढ़ता है तो मुझे कोई अचंभा नहीं होगा। सभ्यता के विकास के क्रम में एक थ्योरी साईक्लिक थ्योरी भी दी गई है। जिसमें कहा गया है कि जिस तेजी से सभ्यता का विकास होता है एक समय के बाद उसी तरह उसका पतन भी होता है। ठीक उसी प्रकार जैसे पहिए का एक हिस्सा ऊपर जाकर तेजी से नीचे गिरता है।