सोमवार, 11 जनवरी 2010

चटकती स्टिक के साथ कैसे डटे रहें हॉकी खिलाड़ी

विश्व कप से ठीक पहले हॉकी खिलाड़ियों की हड़ताल ने देश के राष्ट्रीय खेल की खस्ता हालत को एक बार फिर उजागर कर दिया। एक अरब जनसंख्या के सपनों को पूरा करने, उनकी आशाओं के दबाव को झेलने और राष्ट्रीय खेल के सम्मान को बचाए रखने के लिए जूझने वाले हॉकी खिलाड़ियों को 25 हजार माहवार देने के लिए भी हॉकी इंडिया के पास पैसे नहीं हैं।

यह कोई पहली बार नहीं है, जब हॉकी की दुर्दशा सबके सामने आई है। धनराज पिल्लै की मजबूरी भरे आंसुओं को कौन भूल सकता है जब वे कैमरे के सामने ही रो पड़े थे। उस वक्त भी बहुत हाय तौबा मची, लेकिन फिर स्थिति वही ढाक के तीन पात।

अगर हम कुछ आंकड़ों पर गौर करें तो यह स्थिति और साफ हो जाएगी। हॉकी टीम की प्रायोजक कंपनी सहारा इंडिया ने सिर्फ 2004 में ही टीम के प्रत्येक खिलाड़ियों को 25 हजार रुपये माहवार दिए थे। उसके बाद से यह बंद है। अब खिलाड़ियों को टूर्नामेंट में शिरकत करने के आधार पर पैसे दिए जाते हैं, वह भी सरकार द्वारा मुहैया कराई गई राशि से। यही नहीं अगर कोई खिलाड़ी मैच नहीं खेल रहा होता तो उसके खाने तक के पैसे हॉकी फेडरेशन नहीं देता।

यही कारण है कि हॉकी खिलाड़ी अपनी निजी कंपनी के लिए खेलना अधिक पसंद करते हैं, लेकिन वहां भी खिलाड़ियों को बहुत ही कम राशि दी जाती है, जोकि प्रतिदिन के आधार पर कुछ सौ रुपये होते हैं। इसके मुकाबले एक रणजी ट्रॉफी में खेलने वाले खिलाड़ी को प्रतिदिन 35 हजार रुपये मिलते हैं। आईपीएल में जिस कीमत पर भारतीय कप्तान महेंद्र सिंह धोनी को खरीदा गया अगर पिछले आईपीएल में उनके द्वारा बनाए गए रनों के हिसाब से देखा जाए तो उन्हें प्रति एक रन के लिए 1.5 लाख रुपये दिए गए। क्रिकेट खिलाड़ियों को प्रति वनडे मैच 1.60 लाख और प्रति टेस्ट मैच 2.5 लाख रुपये मिलते हैं। इसके अलावा टूर्नामेंट जीतने पर बोनस अलग से।

क्रिकेट के मुकाबले हॉकी की दयनीयता इससे भी साफ होती है कि सहारा इंडिया मात्र 3.15 करोड़ में ही तीन साल के लिए हॉकी टीम के प्रायोजक बन गया, वहीं क्रिकेट के एक वनडे मैच के लिए सहारा इंडिया को 1.9 करोड़ देना पड़ता है। क्रिकेट के नए संस्करण ट्वंटी20 का प्रायोजक बनने के लिए तो एक मैच में 3 करोड़ देने पड़ते हैं।

यही नहीं जहां क्रिकेट खिलाड़ियों को विज्ञापन से लेकर बड़ी कंपनियों में रोजगार आसानी से मिल जाता है, वहीं हॉकी खिलाड़ी जूझते रहते हैं। अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त और राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार से नवाजे गए धनराज पिल्लै को भी नौकरी के लिए दर-दर की ठोकर खाना पड़ा था, जब उनकी पुरानी कंपनी महिन्द्रा ने अपनी हॉकी टीम खत्म करने का ऐलान किया था। हालांकि पिल्लै ने बड़ी मशक्कत के बाद इंडियन एयरलाइंस में सहायक मैनेजर की नौकरी पाने में कामयाब हुए थे।

ऐसी खस्ता हालत में होने के बावजूद हॉकी खिलाड़ी अगर अपनी चटकती हॉकी स्टिक से कुछ गोल कर पाते हैं तो यह उनकी देश के प्रति गहरा प्रेम ही है। अब यह हॉकी इंडिया के ऊपर है कि वह कैसे अपने खिलाड़ियों को धन मुहैया कराकर उनको उनकी दयनीयता से बाहर निकालता है।

1 टिप्पणी:

विजय कुमार झा ने कहा…

कब से बढिय़ा लिखने लगे भाई। बढिय़ा विश्लेषण है। दिल को छू गया यह लेख।