"इधर के लोग आंकड़ों की बात करेंगे और उधर के लोग भी आंकड़ों की बात करेंगे, लेकिन मैं आंकड़ों की बात नहीं करूंगा बल्कि गरीब गुरबों की बात करूंगा जो मंहगाई के बोझ तले दबा जा रहा है" कुछ इसी अंदाज में लोकसभा में बीच की पंक्ति में खड़े होकर गरीबों की राजनीति करने वाले लालू ने अपने दोनों तरफ बैठे सत्ता पक्ष एवं विपक्ष के नेताओं पर वार किया था। लेकिन विडंबना देखिए उसी लोकसभा में तथाकथित बहुसंख्यक गरीबों के राजनेता लालू अब नहीं दिखेंगे। चारा घोटाले में पांच साल की कैद होने के बाद अब वह अगले 11 सालों तक चुनाव नहीं लड़ पाएंगे। तो क्या यह गरीबों की हार है या गरीबी का मजाक है?
रुकिए इतनी जल्दी किसी निर्णय पर नहीं पहुंचिए, क्योंकि गरीबी और राजनीति का संबंध अटूट है तो फिर ऐसा क्यों होता है कि इतने लंबे समय में भी गरीबों की संख्या में बढ़ोतरी ही हुई है लेकिन गरीबी के नाम पर राजनीति को भुनाने वाले नेताओं का आना और जाना बदस्तूर जारी है। लालू की राजनीति का सितारा 1990 में खूब चमका जब वह गरीब लोगों में खूब लोकप्रिय थे जिन्होंने गरीबों को बोलने की आजादी दी थी। लालू 1990 से 1997 तक बिहार के मुख्यमंत्री रहे और फिर 1997 से लेकर 2005 तक उनकी पत्नी ने बिहार की मुख्यमंत्री पद संभाला। यह भी एक गजब संयोग है कि जब लालू जी गरीबों की राजनीति कर रहे थे वही दौर भारत में नए आर्थिक सुधारों का था। जहां दूसरे राज्य नई आर्थिक नीति से लाभान्वित होने में लगे थे वहीं बिहार तमाम आर्थिक संसाधनों के बावजूद इस दौर में पीछे ही रहा (झारखंड उस वक्त बिहार का ही हिस्सा था)।
ऐसा शायद इसलिए हुआ कि जिस प्रकार भारत में जाति धर्म की राजनीति होती है और अपने वोट बैंक को बनाए रखने के लिए इसको कायम रखने की कोशिश भी होती है, लालू ने बिहार में एक नया संप्रदाय बनाया और वह था गरीबी का। लालू ने एक बार एक पत्रकार से मजाकिया अंदाज में ही सही लेकिन इसे स्वीकारते हुए कहा था कि अगर मैं गरीबी मिटाउंगा तो फिर मेरी क्या जरूरत रहेगी। लेकिन लालू शायद यह भूल गए कि गरीबों ने उन्हें इसलिए स्वीकारा था कि वह उन्ही के बीच के थे औऱ उन्हे यह लगता था कि उनके बीच का आदमी उनके दुख-दर्द को शायद अच्छे से समझेगा और उन्हें दूर करने की कोशिश करेगा। लेकिन समय के साथ लालू उनके बीच की राजनीति तो करते रहे, लेकिन उनके बीच के नहीं रहे।
आंकड़ों के मुताबिक लालू की घोषित संपत्ति 1990 में लगभग 7 लाख रुपए थी जो कि 2013 में बढ़कर लगभग 2 करोड़ से अधिक हो गई। इसी दौरान बिहार में गरीबों की संख्या 3 करोड़ से बढ़कर 5 करोड़ हो गई, वह भी तब जब एक बेहद पिछड़ा इलाका झारखंड अब बिहार से कटकर अलग राज्य बन गया है। अब आप समझ सकते हैं कि गरीबों की राजनीति करने वाले लालू न तो गरीब रहे और न ही संसद में गरीबों के प्रतिनिधि। हां लेकिन लालू अमीर जरूर हो गए पर उनकी गरीबी की राजनीति कायम रही, लेकिन इस बीच जो ठगा गया वह है गरीब। अब गरीबों को इंतजार है एक नए रहुनुमां की जो उनके बीच का हो और उनके लिए लड़े लेकिन शायद तब तक जब तक वह अमीर न हो जाए।
रुकिए इतनी जल्दी किसी निर्णय पर नहीं पहुंचिए, क्योंकि गरीबी और राजनीति का संबंध अटूट है तो फिर ऐसा क्यों होता है कि इतने लंबे समय में भी गरीबों की संख्या में बढ़ोतरी ही हुई है लेकिन गरीबी के नाम पर राजनीति को भुनाने वाले नेताओं का आना और जाना बदस्तूर जारी है। लालू की राजनीति का सितारा 1990 में खूब चमका जब वह गरीब लोगों में खूब लोकप्रिय थे जिन्होंने गरीबों को बोलने की आजादी दी थी। लालू 1990 से 1997 तक बिहार के मुख्यमंत्री रहे और फिर 1997 से लेकर 2005 तक उनकी पत्नी ने बिहार की मुख्यमंत्री पद संभाला। यह भी एक गजब संयोग है कि जब लालू जी गरीबों की राजनीति कर रहे थे वही दौर भारत में नए आर्थिक सुधारों का था। जहां दूसरे राज्य नई आर्थिक नीति से लाभान्वित होने में लगे थे वहीं बिहार तमाम आर्थिक संसाधनों के बावजूद इस दौर में पीछे ही रहा (झारखंड उस वक्त बिहार का ही हिस्सा था)।
ऐसा शायद इसलिए हुआ कि जिस प्रकार भारत में जाति धर्म की राजनीति होती है और अपने वोट बैंक को बनाए रखने के लिए इसको कायम रखने की कोशिश भी होती है, लालू ने बिहार में एक नया संप्रदाय बनाया और वह था गरीबी का। लालू ने एक बार एक पत्रकार से मजाकिया अंदाज में ही सही लेकिन इसे स्वीकारते हुए कहा था कि अगर मैं गरीबी मिटाउंगा तो फिर मेरी क्या जरूरत रहेगी। लेकिन लालू शायद यह भूल गए कि गरीबों ने उन्हें इसलिए स्वीकारा था कि वह उन्ही के बीच के थे औऱ उन्हे यह लगता था कि उनके बीच का आदमी उनके दुख-दर्द को शायद अच्छे से समझेगा और उन्हें दूर करने की कोशिश करेगा। लेकिन समय के साथ लालू उनके बीच की राजनीति तो करते रहे, लेकिन उनके बीच के नहीं रहे।
आंकड़ों के मुताबिक लालू की घोषित संपत्ति 1990 में लगभग 7 लाख रुपए थी जो कि 2013 में बढ़कर लगभग 2 करोड़ से अधिक हो गई। इसी दौरान बिहार में गरीबों की संख्या 3 करोड़ से बढ़कर 5 करोड़ हो गई, वह भी तब जब एक बेहद पिछड़ा इलाका झारखंड अब बिहार से कटकर अलग राज्य बन गया है। अब आप समझ सकते हैं कि गरीबों की राजनीति करने वाले लालू न तो गरीब रहे और न ही संसद में गरीबों के प्रतिनिधि। हां लेकिन लालू अमीर जरूर हो गए पर उनकी गरीबी की राजनीति कायम रही, लेकिन इस बीच जो ठगा गया वह है गरीब। अब गरीबों को इंतजार है एक नए रहुनुमां की जो उनके बीच का हो और उनके लिए लड़े लेकिन शायद तब तक जब तक वह अमीर न हो जाए।
1 टिप्पणी:
JUST SUPERB SIR
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