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अगर आप इस दौरान टीवी चैनलों को देख रहे होंगे तो आपको यह पक्षपात साफ नजर आ जाएगा। चाहे वह टाइम्स नाउ के अर्नब गोस्वामी हों या सीएनएन-आईबीएन के राजदीप सरदेसाई, या फिर आज तक के स्टार एंकर पुण्य प्रसुन्न वाजपेयी, सबने इस मामले को देश के मध्यम वर्ग की व्यथा से जोड़ दिया और ऐसा चित्र प्रस्तुत किया कि महाराष्ट्र की सरकार से लेकर अदालतें तक हिल गई और उस गैरकानूनी इमारत की तोड़ना रुक गया। मैं कुछ सवाल आप लोगों के आगे रखना चाहता हूं। जब यह गैर कानूनी इमारत बन रही थी तो मुंबई नगर निगम कहां था? अगर यह मान भी लिया जाए कि निगम की नजर नहीं पड़ी तब भी जब इमारत बन कर तैयार हो गई और बेची जा रही थी, तब वहां निगम ने बैनर क्यों नहीं लगाया कि यह इमारत गैर कानूनी है? यह मीडिया उस वक्त कहां थी जब मुंबई में ही सैकड़ों झुग्गी झोपड़ियों को गिरा दिया गया था? या फिर यह मान लिया जाए कि हमारी सरकार और मीडिया को इस मजबूर तबके के सपनों से कुछ लेना देना ही नहीं है।
सिर्फ 2004 में ही मु्ंबई में 70,000 झोपड़ियों को तोड़ दिया गया था, जिससे 3 लाख लोग बेघर हो गए थे। अभी भी शहर के कई हिस्सों में इन झुग्गी झोपड़ियों को तोड़ा जाना जारी है और वहां उनके लिए गला फाड़ने वाला और उनके सपनों को बचाने वाला कोई अर्नब गोस्वामी या राजदीप नहीं है। पिछली बार जब झुग्गियों को तोड़ा गया था तो कई लोगों की सर्दी के कारण जान चली गई। एक बुजुर्ग की तो अपना घर टूटते देख दिल की धड़कन रूक जाने से जान चली गई। लेकिन पोस्टमार्टम में इनकी मौत का कारण उनके घर तोड़े जाने को कभी नहीं माना जाएगा। यह वही देश है जहां भूखमरी के शिकार लोगों द्वारा आम की गुठली खाने के लिए मजबूर होने के बाद होने वाली मौतों का कारण उनके पेट में हुई बीमारी को माना जाता है न कि भूख को। कैंपा कोला सोसाइटी में रहने वाले लोगों के लिए हमारी पूरी सदभावना होनी चाहिए, लेकिन सवाल यह है कि जब गरीब लोगों के साथ वही अत्याचार होता है तो हमारा मीडिया, सरकार और अदालतें कहां होती हैं? आपके पास कोई उत्तर हो तो जरूर बताईएगा।
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