''सा...' दिल्ली में भी एक राज ठाकरे की जरूरत है। हमें खुद तो परेशानी हो रही है और ये सा...' बाहर से आकर दिल्ली को अपनी बपौती समझे हुए हैं।'' जी हां, कुछ ऐसे ही शब्द थे उन महानुभाव के सुबह-सुबह, मेट्रो के सफर में, बड़ी संख्या में लोगों के बीच।
अब आप सोच रहे होंगे कि मैं ये आपको क्यों बता रहा हूं। तो जनाब, मैं ये आपको इसलिए बताना चाहता हूं कि जरा इसके पीछे कारण क्या थे वो भी जानिए।
मेट्रो में लोगों की भीड़ से तो आप सब वाकिफ हैं और आप सब कभी न कभी रू-ब-रू भी हुए होंगे। ऐसे ही एक दिन धक्का-मुक्की करते हुए कुछ लोग मेट्रो में चढ़ने की जंग जीत जाने को उतारू थे। ये अलग बात है कि आराम से भी चढ़ा जा सकता है और अगर नहीं चढ़ पाए तो अगली मेट्रो का इंतजार भी किया जा सकता है। लेकिन ऐसा नहीं है, इसलिए शायद हमारे गृहमंत्री को भी कहना पड़ता है कि दिल्लीवासी अनुशासित हों। खैर, मैं वापस मुद्दे पर आता हूं। हां तो मेट्रो में चढ़ने की जंग जीत जाने के बाद दो लोग और उनके साथ एक महिला ने इस जद्दोजहद के लिए किसी को दोषी साबित करने की सोची। इधर-उधर नजर दौड़ाने के बाद एक मजदूर एक बोरी में सामान लिए निरीह सा खड़ा दिखा। तो फिर क्या था, तोप चलाने के लिए मिल गई उनको मुर्गी।
उन्होंने आव देखा न ताव और बोलना शुरू कर दिया, '' यार ये सुबह सुबह क्या लेकर चढ़ जाते हो''। मैंने सुन कर अनसुना कर दिया। सोचा अब चढ़ने में परेशानी हुई है तो थोड़ा आदमी चिढ़ ही जाता है। इसलिए गलत होने पर भी इसे क्षम्य माना जा सकता है। तभी तपाक से दूसरे ने कहा, '' सुबह-सुबह ध्यान रखा कर यार, ये क्या लेकर चढ़ जाते हो।'' अब मेरे लिए असहनीय था। असहनीय इसलिए था कि अपनी जिंदगी में जो कुछ मैंने सिखा है उसमें अपनी प्रोफेसर के द्वारा सिखाई गई एक बात भी मैंने सिखी है। उन्होंने कहा था कि अगर कुछ भी गलत देखो तो एक बार टोक जरूर दो, अगर इससे एक प्रतिशत भी फर्क पड़ता है तो समझो तुम्हारा काम हो गया। मेरे मन में सीधे उन्ही की बात कौंधी।
मैंने भी सीधे उन महानुभव से कहा, '' क्यों भाई साहब क्या ये अपना सामान बाहर ही फेंक कर आए क्या? उन्होंने शायद इसकी आशा नहीं की थी। सो कुछ क्षण के लिए तो वे सकपका गए, फिर कहा कि आपको क्या मतलब है? मैंने फिर कहा कि मेट्रो सिर्फ खास लोगों के लिए ही नहीं है, आम आदमी भी सफर करेंगे। इतने में देवी जी बोली, '' ठीक है भाई साहब, आप क्यों इतना गुस्सा कर रहे हो, आपका सामान तो चढ़ गया ना।" मैंने कहा, " मैडम, पहली बात तो मेरा सामान है ही नहीं, और दूसरी बात कि अगर मेरा सामान होता तो शायद आप बोलती भी नहीं। मैंने बगल में ही खड़े एक सज्जन की तरफ इशारा करके दिखाया कि इनके पास उस मजदूर से कहीं अधिक सामान है, आपने इनको कुछ क्यों नहीं बोला। शायद इसलिए कि ये साहब शूट बूट में हैं" इसके बाद वो सब चुप हो गए। लेकिन चंद मिनटों बाद एक तीसरे आदमी ने उन लोगों से वही कहना शुरू दिया, जिससे मैंने इस लेख की शुरुआत की है। मैंने फिर इसका जवाब देना उचित नहीं समझा, क्योंकि किसी की बकवास का जवाब देने से बात ही बढ़ती है, और फिर वह मुहावरा भी तो चरितार्थ होता दिख रहा था, खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे। साथ ही वहां खड़े अधिकतर लोगों के चेहरों पर मेरे बोलने का जो संतोष दिख रहा था, वही मेरे लिए यह जानने के लिए काफी था कि मेरा काम हो गया। साथ में मुझे एक बार फिर यह विश्वास हुआ कि ज्यादातर लोग दुनिया में अच्छे ही होते हैं।
इस घटना के बीते तो दो दिन हो गए हैं, लेकिन मेरे मन में कई सवाल उमड़ रहे हैं, जिसका जवाब मेरा खिन्न मन शायद ढूंढ पान में असमर्थ है। पहला तो ये कि क्या जैसे-जैसे आदमी आर्थिक रूप से ऊपर की ओर बढ़ता है, अपने से कमतर लोगों के प्रति असंवेदनशील हो जाता है? मैं खुद अपने अंदर झांकने की कोशिश करता हूं तो शायद बदतमीजी से जब कभी भी मैंने बात की हो, वह आर्थिक रूप से छोटे लोगों से ही की है। हालांकि मैं हमेशा कोशिश करता हूं कि मुझसे ऐसा अपराध नहीं हो।
आपको नहीं लगता कि आज का समाज, शिक्षा पद्धति, जीवन दर्शन सब एक ही तरफ बढ़ रहा है, "आर्थिक उन्नति की तरफ"। लेकिन परेशान करने वाली चीज यह है कि यह उन्नति हमें असंवेदनशील क्यों बना रहा है। प्रगति संसार का नियम है, समाज हमेशा से आगे की तरफ ही बढ़ा है, लेकिन इस उन्नयन से अगर असंवेदनशीलता का जन्म हो तो फिर ऐसी प्रगित से क्या फायदा। समाज के प्रति, कर्तव्यों के प्रति, अनुशासन के प्रति, पर्यावरण के प्रति, संबंधों के प्रति और न जाने जीवन के और कितने भी पहलू जोड़ लें सबके प्रति हम संवेदनशील ही तो होते जा रहे हैं। अभी के समय में कवि की वो पंक्तियां चरितार्थ हो रही हैं जिसमें उन्होंने कहा था-
कुछ नहीं दिखता था अंधेरे में मगर, आंखें तो थीं,
ये कैसी रोशनी आई कि सब अंधे हो गए।।
90 के दशक के बाद जिस सूचना क्रांति के दौर में हम जी रहे हैं, उसमें ज्ञान का मतलब ही सिर्फ सूचना हो गई है। सूचना और ज्ञान के प्रति वह विभाजक रेखा कहीं मिट गई है। आज जो जितना सूचित है वही ज्ञानी है। जबकि जीवन दर्शन, सामाजशास्त्र जैसी चीजें जिससे हमारा जीवन संचालित होता है वह ज्ञान कहीं लुप्त हो गया है। पहले के समय में ज्ञानी उसी को समझा जाता था, जो जीवन जीने की कला, जीवन में शांति प्राप्त करने की कला और समाज को व्यवस्थित रहने की कला को सिखाता था। अब दार्शनिक, समाजशास्त्री सबको हम प्रगति के अंधी दौड़ में पागल घोषित करने में लगे हुए हैं।
आपको नहीं लगता कि इसी ज्ञान रूपी क्षेत्रों को जीवित करने की जरूरत है। ताकि लोग संवेदनशील बनें, सामाजिक बनें। अगर ऐसा हुआ तो न किसी कोपेनहेगन सम्मेलन की जरूरत होगी, न महिलाओं के प्रति हिंसा रोकने के लिए वृहद प्रचार की जरूरत होगी, न कोई अमीरजादा सड़क पर सो रहे लोगों को कुचलेगा, न आतंक के खिलाफ वैश्विक मुहिम की जरूरत होगी, न ट्रेन की जनरल बॉगी में कुछ हजार रुपये लेकर जा रहे मजदूरों से पुलिस पैसे छिनेंगी, न लुधियाना में लुटे जाने के विरोध में ट्रकों में मजदूर आग लगाएंगे। न कोई राज ठाकरे पैदा होगा। आप क्या सोचते हैं? जरा सोचिए.......और मेरी उद्विगनता भी दूर कीजिए।
ये कौन है जो पत्थर फेंक रहा, कौन है जो आग लगा रहा है
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ये कौन है जो पत्थर फेंक रहा है,
इंसानियत को लहूलुहान कर रहा है।
ये कौन है जो आग लगा रहा है।
दुकानों ही नहीं भाईचारे को भी जला रहा है।
क्यों सड़कों पर बिखरा...
4 वर्ष पहले
5 टिप्पणियां:
जी सुजीत मुझे आपका लिखा लेख दिल को छू गया।मुझे भी यह बात हमेशा सालती रहती है कि आदमी और धनपशु के रूप में संवेदनशून्य आदमी के बीच के भेद कब खत्म होंगे और कब ये संवेदना शून्य किन्तु तथाकथित भौतिकवादी सभ्य कब स्वयं को नैतिक रूप से दुरुस्त कर सभ्य रूप में समाज के सामने प्रस्तुत करेंगे। खैर, वक्त का एक बयार कभी न कभी अवश्य बहेगी ,जब किसी आपके ही जैसे दुरूस्त मानसिकता वाले व्यक्ति के नेत्त्व में सुधार संभव हो पाएगा।
definately, this article shows your emotional attachment with haves not group. i am social and i can understand, what you felt in metro. sujeet jee, as we are progressing, the emotion, truthfulness and non voience are dying in the name of caste, class, region and religion. actually the human approch has completely changed now. each and every person thinks for oneself, that,s why social animal is behaving like animal. we do not understand the importance of emotion, which is essential part of socialisation.
we are not saying we the people of india. we are saying we the people of maharashtra, delhi, bengal and........
what does it mean? it shows that we are not gaining, but loosing something. i think its indian identity.
1.only this way, we can save us as an indian, those person who belong to haves group, they have special responsibility to give moral and physical lesson to haves not group. unfortunately, its not happening.
2. haves group will have to take it as a challenge. first of all we will have to change our mentality. it will happen only, when we think it as a serious issue.
sorry, i am giving you my feedback in english, because of technical problem in hindi font.
finally,
this article is very good. your writting skill is impressive. i have learnt moral lesson from it.
आपका ब्लाग पढ़कर दो बातें साफ हुईं। पहली, कि दिल्ली में सबकुछ ठीक नहीं है यह सभी को दिख रहा है, और दूसरी इस मुद्दे पर किसी उस शहर के बाशिंदे के विचारों को भी समझजना जरूरी है।
रही बात भौतिकतावादी सोच की, यह नैसर्गिक प्रवृत्ति है। आप मनुष्यों से इतर भी देखेंगे तो वर्चस्व की लड़ाई वहां भी दिखेगी। चाहे वो जानवर हो, पक्षी हो या पौधा। मोर नाच के प्रियतमा को रिझाता है तो मनुष्य दिखावा करके।
मुझे नही लगता कि यहां कुछ भी दुरूस्त करने की जरूरत है। यह बात सोलह आने सही है कि आप जितना उपर उठते जाएंगे जमीन से उतना ही दूर भी होते जाएंगे। ऐसे में जमीन छूटने का विलाप कोई मायने नहीं रखता।
अब रही बात दिल्ली की भीड़ भाड और लोगों के रवैये की। राजेश जी ने एक बात कही कि यहा लोग महाराष्ट्र, बंगाल, दिल्ली के हैं लेकिन भारत के नहीं। तो इस मामले में मैं कहना चाहूंगा आप भारतीय होना तभी ज्यादा महसूस करेंगे जब आप विदेश में होंगे। वहां मराठी, पंजाबी, बिहारी होना काफी हद तक दूर हो जाता है। यह और कुछ नहीं मनुष्य में बसी असुरक्षा की भावना ही है।
एक और बात आप लोगों का ध्यान चाहूंगा। अगर आप दिल्ली में ध्यान से देखें तो सिर्फ एक राज्य है जहा के लोगों का ग्रुप बना नहीं मिलेगा, और वो है दिल्ली। यह दिल्ली ही नहीं किसी भी राज्य या देश में देखा जा सकता है।
समस्या यह है, कि जब तक ग्रुप व्यक्ति की अपनी जरूरत के हिसाब से हो तो तब तक ही ठीक है। आज दो दिल्ली के लोग मिल जाएंगे तो फौरन लोग शोर मचाने लगेंगे के हमारा शोषण हो रहा है। लेकिन जब दूसरे राज्य, जाती या भाषा के लोग बनाते हैं तब वो एक पल के लिए भी नहीं सोचते की ये लामबंदी आखिर हम कर किसके खिलाफ रहे हैं। अभी अगर दिल्ली या मुंबई में महामारी फैल जाए तो और राज्यों के लोग तो अपने-अपने घर चले जाएंगे, उसी शहर के लोग कहां जाए?
तो दिल्ली में भीड और अमानवीय आचरण के पीछे भीड संस्कृति नहीं तो किसे दोषी माने?
किसी भी देश या शहर में जाएं तो उसे अपना मान कर चलें। खुशवंत सिंह की कहानी 'एलिस नाम का शहर' जरूर पढ़ें खासतौर पर उसका आखिरी वाक्य।
एक आखिरी बात के साथ अपनी बात समाप्त करना चाहूंगा। कि देखिए किसी शहर के लोग ये न कहें।
हमारे मेहमान जो आए बनकर, वो जुल्म करने लगे हमीं पर।
सितम तो देखो मकां के बाहर मकान वाले पड़े हुए हैं।
रही बात की भौतिकतावाद कब खत्म होगा। तो मान कर चलिए कपड़ों के भीतर सभी नंगे हैं। जब विश्वामित्र भोग विलास के आकर्षण से नहीं बच सके तो हम-आप क्या चीज हैं।
आप ने मेरी बात को समय दिया इसके लिए धन्यवाद।
नितिन जी आपकी टिप्पणी के लिए शुक्रिया। आपकी टिप्पणी पढ़कर मैं थोड़ा सोच में पड़ गया कि आखिर दिल्ली में मेहमान कौन है और मेजबान कौन, पहले यह तय करना होगा। मैं जहां तक समझता हूं महानगरों में तो सभी लोग बाहर से ही आए हैं। कोई 20 साल पहले और कोई 20 साल बाद। जो 20 साल पहले आ गया वह दिल्ली को सिर्फ अपना मनकर दूसरों के लिए दरवाजा बंद करे तो यह कहां तक सही होगा, इस पर जरूर विचार करें। हमारी संस्कृति तो वसुधैव कुंटंबकम की है, ऐसे में दिल्लीवालों की दिल्ली, मराठियों की मुंबई, ऐसी सोच रखना कहां तक उचित है। जहां तक भौतिकवादी संस्कृति के प्रभाव की बात आपने कही मैं तो मानता हूं कि इससे बचने की जरूरत तो है ही। मैं अटल बिहारी की कविता की दो लाइनें आपको बताना चाहूंगाः-
है ईश्वर मुझे इतनी ऊंचाई मत देना,
कि गैरों को गले ने लगा सकूं।।
इस लेख में मैंने जिस मुद्दे को प्रंमुखता से उठाया है उसपर गौर जरूर करें। मैंने गरीबी-अमीरी की खाई को ज्यादा प्रमुखता दी है। सूट-बूट में खड़ा आदमी कहां का था और वह मजदूर कहां का यह तो मजदूर पर अपना गुस्सा निकालने वाले को भी शायद पता नहीं था। हम भौतिकतावाद के नशे में चूर होकर अगर उसका प्रदर्शन करें और अबने से नीचे किसी को कुछ समझे ही नहीं तो शायद इससे अराजक समाज का ही निर्माण होगा। अभी के लिए इतना ही।
आपके उठाये मुद्दे वाकई एक क्रांतिकारी मुद्दे हैं और ऐसी ही कैंची हेडलाइन को पूरे लेख में बनाए रखना भी अपने आप में एक काबलियत है।
आपके लेखों में एक पत्रकार की कम एक साहित्यकार की ज्यादा झलक दिखाई देती है। मैं अभी इस स्थिति में नहीं हूं कि आपको कुछ भी राय दे सकूं लेकिन यह मेरा अपना निजी मानना है कि आप अगर अपने इन लेखों को कहानी या नाटय के रुप में लिखने का प्रयास करेंगे तो बहुत सीढि़यां तय कर सकते हैं
प्रमोद पंत
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