शुक्रवार, 20 फ़रवरी 2009

डार्विन का सवाल, सबका मालिक एक कैसे?

हमेशा से ही इंसान की खोजी दिमाग ने उन सब समस्याओं का समाधान ढूंढने का प्रयास किया जो परेशान करती हैं और उसमें बहुत हद तक सफल भी हुआ। यही कारण है कि मानव सभ्यता जंगल से निकल कर गांवों में और फिर शहरों तक पहुंच गई। लेकिन इन सबके बीच जिन समस्याओं को खोजने में मानव दिमाग सक्षम नहीं हुआ उसको ईश्वरीय कृपा, ईश्वर की लीला, जादू-टोना का नाम दे दिया। इन्हीं सवालों में से एक अहम सवाल है जीवन की शुरुआत कैसे हुई? हमेशा से दार्शनिकों ने इसका हल निकालने की कोशिश की। लेकिन सबका घूम-फिरकर एक ही जवाब आया कि किसी परम तत्व ने हमें बनाया है। उसी ने यह विश्व बनाया है और इसमें जीवों की रचना की है। उस परमतत्व को किसी ने ‘मोनड’ कहा, किसी ने ‘ब्रह्म’ कहा तो किसी ने ‘प्रत्यय’ कहा। लेकिन जीवन की यह धार्मिक व्याख्या एक व्यक्ति को खुश नहीं कर पाई और उसका परेशान मन निकल पड़ा इसकी खोज करने और जब वह इसकी खोज कर वापस आया तो जैसे पूरे विश्व में भूचाल आ गया, क्योंकि उन्होंने ‘सबको बनाने वाला एक है’ इसी पर सवाल उठाते हुए कहा कि जीवों का विकास वस्तुतः प्रकृति का विकासक्रम है और प्रकृति के विकास के साथ ही उससे सामंजस्य बिठाने के क्रम में कई जीव मिट गए और कई जीवों की उत्पति हुई। दुनिया को यह नवीन सिद्धांत देने वाला व्यक्ति था चाल्र्स डार्विन।

जी हां, चाल्र्स डारविन ने सबका मालिक एक है पर सवाल उठाते हुए अपनी किताब ‘ओरिजीन ऑफ स्पीसीज’(Origin Of the Speceis) में सवाल उठाते हुए `विकासवाद का सिद्धांत' (Theory Of Evolution) दिया। जिसमें उन्होंने बताया कि समय के साथ-साथ प्रकृति के साथ समन्वय करते हुए ही जीवन का विकास हुआ। 1831 में ‘बीगल’ नामक जहाज पर उन्होंने अपनी जिज्ञासा को पूरा करने के लिए 5 साल के सफर की शुरुआत की। अपनी इस सफर में वह अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, उत्तर अमेरिका, यूरोपीय देशों की यात्रा की। इन सभी जगहों की जैव विविधता को देखकर उनको आभास हुआ कि भिन्न-भिन्न प्राकृतिक स्थिति के हिसाब से ही जैव विविधता भी है। उन्होंने सवाल भी उठाया कि अगर सबका मालिक एक है तो एक ही जाति के पक्षी विभिन्न देशों में भिन्न-भिन्न क्यों हैं।

उन्होंने कहा कि वास्तव में हम मरने के बाद कहां जाते हैं इस पर सवाल तो उठाया जा सकता है लेकिन हम कैसे बने इस वैज्ञानिक तथ्य पर सवाल नहीं उठाया जा सकता। लेकिन धर्म और आस्था के नाम पर चलने वाली लाखों दुकानों को यह कैसे गवारा होता और शुरू हुआ विरोध का एक नया अध्याय। विकासवाद के सिद्धांत का विरोध करने वालों में एक अहम नाम है हरवर्ट स्पेंसर का जिन्होंने ‘सरवाइवल ऑफ द फीटेस्ट’ का सिद्धांत देकर डार्विन का विरोध किया। जिसमें उन्होंने कहा कि प्रकृति में जो फिट है वही जी सकता है। वस्तुतः डार्विन ने यह कभी नहीं कहा था कि बंदर से बना है इंसान। उन्होंने कहा था कि बंदर, इंसान और वनमानुस के पूर्वज एक ही थी। उन्होंने प्रकृति के साथ बेहतर तालमेल की बात की थी ताकि प्रकृति के साथ जीवन का एक अच्छा तालमेल बैठ सके। लेकिन औपनेवेशिक भूख को शांत करने में जुटे उस समय के सर्वाधिक यूरोपीय मुल्क को स्पेंसर की वह बात ही ज्यादा अच्छी लगी-सरवाइवल ऑफ द फिटेस्ट। हमारे देश में दलितों को किसी योग्य न समझने और दास प्रथा से लेकर महिलाओं की बुरी स्थिति के पीछे यही सोच काम कर रही है।

जहां डार्विन के विरोधी मौजूद हैं वहीं उनके समर्थकों की कमी नहीं है। कार्ल माक्र्स ऐसा ही एक नाम है। जिन्होंने धार्मिक मान्यताओं का खंडन करते हुए इसकी तुलना अफीम से की। जिस दासों एवं मजदूरों के शोषण के खिलाफ कार्ल माक्र्स ने झंडा बुलंद किया उन्हीं दासों की दयनीय स्थिति देखकर डार्विन का भी दिल पसीज गया था। जहां डार्विन ने विकासवाद का सिद्धांत दिया वहीं कार्ल माक्र्स ने सामाजिक विकास की वैज्ञानिक व्याख्या प्रस्तुत की। दासों के शोषण के खिलाफ अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने भी जोरदार संघर्ष किया। यह भी एक अजीब संयोग है कि लिंकन और डार्विन एक ही दिन पैदा हुए थे।

डार्विन के सिद्धांत का विरोध और समर्थन अभी भी जारी है। धार्मिक मान्यता और विकासवाद के सिद्धांत के समर्थकों और विरोधियों के बीच कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्होंने दोनों ही जगह अपना स्थान बना लिया है। यह हर जगह दिख जाता है। यही कारण है कि चंद्र मिशन से पहले वैज्ञानिक नारियल फोड़ते हैं, ऑपरेशन करने से पहले डॉक्टर ईश्वर के आगे हाथ जोड़ते हैं। आपको हर अस्पताल के अंदर या उसके ठीक सामने एक पूजा स्थल जरूर मिल जाएगा। और सबसे महत्वपूर्ण यह कि यहां अल्लाह, राम, ईसू और नानक सब एक हो जाते हैं। आप इन सबको एक ही कमरे में एक दूसरे के आस पास देख सकते हैं। वास्तव में यह विज्ञान और विकास का मेल है। अब लोग धार्मिक मान्यताओं के साथ-साथ वैज्ञानिक खोजों को भी अहमियत देते हैं। इसका कारण एक तो यह है कि विज्ञान ने लोगों के जीवन को आसान बनाया है और कई समस्याओं को दूर किया है और दूसरा लोगों के सामने अभी भी कई समस्याएं हैं जिसका उत्तर विज्ञान के पास नहीं है। वह सवाल जस का तस बना हुआ है कि हम मरने के बाद कहां जाते हैं। इस प्रश्न का उत्तर जब मिलना होगा मिल जाएगा लेकिन दुनिया के बारे में एक नवीन दृष्टि देने वाले डार्विन और उनके विकासवाद के सिद्धांत को सलाम।

कोई टिप्पणी नहीं: