शनिवार, 5 दिसंबर 2009

`दिल्ली को भी चाहिए एक राज ठाकरे'

''सा...' दिल्ली में भी एक राज ठाकरे की जरूरत है। हमें खुद तो परेशानी हो रही है और ये सा...' बाहर से आकर दिल्ली को अपनी बपौती समझे हुए हैं।'' जी हां, कुछ ऐसे ही शब्द थे उन महानुभाव के सुबह-सुबह, मेट्रो के सफर में, बड़ी संख्या में लोगों के बीच।

अब आप सोच रहे होंगे कि मैं ये आपको क्यों बता रहा हूं। तो जनाब, मैं ये आपको इसलिए बताना चाहता हूं कि जरा इसके पीछे कारण क्या थे वो भी जानिए।

मेट्रो में लोगों की भीड़ से तो आप सब वाकिफ हैं और आप सब कभी न कभी रू-ब-रू भी हुए होंगे। ऐसे ही एक दिन धक्का-मुक्की करते हुए कुछ लोग मेट्रो में चढ़ने की जंग जीत जाने को उतारू थे। ये अलग बात है कि आराम से भी चढ़ा जा सकता है और अगर नहीं चढ़ पाए तो अगली मेट्रो का इंतजार भी किया जा सकता है। लेकिन ऐसा नहीं है, इसलिए शायद हमारे गृहमंत्री को भी कहना पड़ता है कि दिल्लीवासी अनुशासित हों। खैर, मैं वापस मुद्दे पर आता हूं। हां तो मेट्रो में चढ़ने की जंग जीत जाने के बाद दो लोग और उनके साथ एक महिला ने इस जद्दोजहद के लिए किसी को दोषी साबित करने की सोची। इधर-उधर नजर दौड़ाने के बाद एक मजदूर एक बोरी में सामान लिए निरीह सा खड़ा दिखा। तो फिर क्या था, तोप चलाने के लिए मिल गई उनको मुर्गी।

उन्होंने आव देखा न ताव और बोलना शुरू कर दिया, '' यार ये सुबह सुबह क्या लेकर चढ़ जाते हो''। मैंने सुन कर अनसुना कर दिया। सोचा अब चढ़ने में परेशानी हुई है तो थोड़ा आदमी चिढ़ ही जाता है। इसलिए गलत होने पर भी इसे क्षम्य माना जा सकता है। तभी तपाक से दूसरे ने कहा, '' सुबह-सुबह ध्यान रखा कर यार, ये क्या लेकर चढ़ जाते हो।'' अब मेरे लिए असहनीय था। असहनीय इसलिए था कि अपनी जिंदगी में जो कुछ मैंने सिखा है उसमें अपनी प्रोफेसर के द्वारा सिखाई गई एक बात भी मैंने सिखी है। उन्होंने कहा था कि अगर कुछ भी गलत देखो तो एक बार टोक जरूर दो, अगर इससे एक प्रतिशत भी फर्क पड़ता है तो समझो तुम्हारा काम हो गया। मेरे मन में सीधे उन्ही की बात कौंधी।

मैंने भी सीधे उन महानुभव से कहा, '' क्यों भाई साहब क्या ये अपना सामान बाहर ही फेंक कर आए क्या? उन्होंने शायद इसकी आशा नहीं की थी। सो कुछ क्षण के लिए तो वे सकपका गए, फिर कहा कि आपको क्या मतलब है? मैंने फिर कहा कि मेट्रो सिर्फ खास लोगों के लिए ही नहीं है, आम आदमी भी सफर करेंगे। इतने में देवी जी बोली, '' ठीक है भाई साहब, आप क्यों इतना गुस्सा कर रहे हो, आपका सामान तो चढ़ गया ना।" मैंने कहा, " मैडम, पहली बात तो मेरा सामान है ही नहीं, और दूसरी बात कि अगर मेरा सामान होता तो शायद आप बोलती भी नहीं। मैंने बगल में ही खड़े एक सज्जन की तरफ इशारा करके दिखाया कि इनके पास उस मजदूर से कहीं अधिक सामान है, आपने इनको कुछ क्यों नहीं बोला। शायद इसलिए कि ये साहब शूट बूट में हैं" इसके बाद वो सब चुप हो गए। लेकिन चंद मिनटों बाद एक तीसरे आदमी ने उन लोगों से वही कहना शुरू दिया, जिससे मैंने इस लेख की शुरुआत की है। मैंने फिर इसका जवाब देना उचित नहीं समझा, क्योंकि किसी की बकवास का जवाब देने से बात ही बढ़ती है, और फिर वह मुहावरा भी तो चरितार्थ होता दिख रहा था, खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे। साथ ही वहां खड़े अधिकतर लोगों के चेहरों पर मेरे बोलने का जो संतोष दिख रहा था, वही मेरे लिए यह जानने के लिए काफी था कि मेरा काम हो गया। साथ में मुझे एक बार फिर यह विश्वास हुआ कि ज्यादातर लोग दुनिया में अच्छे ही होते हैं।

इस घटना के बीते तो दो दिन हो गए हैं, लेकिन मेरे मन में कई सवाल उमड़ रहे हैं, जिसका जवाब मेरा खिन्न मन शायद ढूंढ पान में असमर्थ है। पहला तो ये कि क्या जैसे-जैसे आदमी आर्थिक रूप से ऊपर की ओर बढ़ता है, अपने से कमतर लोगों के प्रति असंवेदनशील हो जाता है? मैं खुद अपने अंदर झांकने की कोशिश करता हूं तो शायद बदतमीजी से जब कभी भी मैंने बात की हो, वह आर्थिक रूप से छोटे लोगों से ही की है। हालांकि मैं हमेशा कोशिश करता हूं कि मुझसे ऐसा अपराध नहीं हो।

आपको नहीं लगता कि आज का समाज, शिक्षा पद्धति, जीवन दर्शन सब एक ही तरफ बढ़ रहा है, "आर्थिक उन्नति की तरफ"। लेकिन परेशान करने वाली चीज यह है कि यह उन्नति हमें असंवेदनशील क्यों बना रहा है। प्रगति संसार का नियम है, समाज हमेशा से आगे की तरफ ही बढ़ा है, लेकिन इस उन्नयन से अगर असंवेदनशीलता का जन्म हो तो फिर ऐसी प्रगित से क्या फायदा। समाज के प्रति, कर्तव्यों के प्रति, अनुशासन के प्रति, पर्यावरण के प्रति, संबंधों के प्रति और न जाने जीवन के और कितने भी पहलू जोड़ लें सबके प्रति हम संवेदनशील ही तो होते जा रहे हैं। अभी के समय में कवि की वो पंक्तियां चरितार्थ हो रही हैं जिसमें उन्होंने कहा था-

कुछ नहीं दिखता था अंधेरे में मगर, आंखें तो थीं,
ये कैसी रोशनी आई कि सब अंधे हो गए।।

90 के दशक के बाद जिस सूचना क्रांति के दौर में हम जी रहे हैं, उसमें ज्ञान का मतलब ही सिर्फ सूचना हो गई है। सूचना और ज्ञान के प्रति वह विभाजक रेखा कहीं मिट गई है। आज जो जितना सूचित है वही ज्ञानी है। जबकि जीवन दर्शन, सामाजशास्त्र जैसी चीजें जिससे हमारा जीवन संचालित होता है वह ज्ञान कहीं लुप्त हो गया है। पहले के समय में ज्ञानी उसी को समझा जाता था, जो जीवन जीने की कला, जीवन में शांति प्राप्त करने की कला और समाज को व्यवस्थित रहने की कला को सिखाता था। अब दार्शनिक, समाजशास्त्री सबको हम प्रगति के अंधी दौड़ में पागल घोषित करने में लगे हुए हैं।

आपको नहीं लगता कि इसी ज्ञान रूपी क्षेत्रों को जीवित करने की जरूरत है। ताकि लोग संवेदनशील बनें, सामाजिक बनें। अगर ऐसा हुआ तो न किसी कोपेनहेगन सम्मेलन की जरूरत होगी, न महिलाओं के प्रति हिंसा रोकने के लिए वृहद प्रचार की जरूरत होगी, न कोई अमीरजादा सड़क पर सो रहे लोगों को कुचलेगा, न आतंक के खिलाफ वैश्विक मुहिम की जरूरत होगी, न ट्रेन की जनरल बॉगी में कुछ हजार रुपये लेकर जा रहे मजदूरों से पुलिस पैसे छिनेंगी, न लुधियाना में लुटे जाने के विरोध में ट्रकों में मजदूर आग लगाएंगे। न कोई राज ठाकरे पैदा होगा। आप क्या सोचते हैं? जरा सोचिए.......और मेरी उद्विगनता भी दूर कीजिए।

गुरुवार, 2 जुलाई 2009

समलैंगिकता को महिमामंडित न करें

आज दिल्ली हाईकोर्ट ने समलैंगिकता को अपराध के दायरे से बाहर निकाल दिया और इसे जायज करार दिया। इस फैसले के साथ ही समलैंगी लोगों में खुशी की लहर दौड़ गई। हो भी क्यों नहीं आखिर उनको समाज की मुख्य धारा में आने का मौका मिला। लेकिन इस फैसले के बाद एक खास बात जो मुझे आकर्षित करती है वह यह है कि इससे लोगों में गजब का उत्साह है। वो इस पर खुश हो रहे हैं, जैसे कि यह बहुत ही जायज काम है और यह होना चाहिए।

सबसे पहली बात तो यह है कि यह एक अप्राकृतिक कार्य है इससे किसी को भी गुरेज नहीं होना चाहिए। अगर कोर्ट ने यह फैसला दिया है तो इसका मतलब सिर्फ इतना है कि जिन लोगों के साथ प्रकृति ने अन्याय किया है अब उनको भी समाज की मुख्यधारा में आने का मौका मिलेगा। इस प्रकार के बीमार लोगों को भी हक है कि उनको वो सभी स्वास्थ्य सेवा मिले जिससे वो महरूम होते आ रहे हैं। इसका कारण सिर्फ इतना था कि अभी तक यह अपराध था, जिसके कारण ये पुलिस के डर से किसी बीमारी कि स्थिति में भी डॉक्टर के पास से जाने से बचते रहते थे। इस रूप में मुझे इस कानून का स्वागत करने में कोई परेशानी नहीं है।

मुझे परेशानी इस बात से है कि चैनलों ने इतिहास पलटकर दिखाने की कोशिश की जैसे कि यह सबका जन्म सिद्ध अधिकार है और जैसे कि इसमें पूरा समाज ऐतिहासिक काल से लिप्त रहा हो। साथ ही बॉलीवुड फिल्मों का उदाहरण दिया जाने लगा जैसे कि ये फिल्में ही जिंदगी का रास्ता तय करती हों। ये ठीक है कि मनुस्मृति और कामसूत्र में इसके बारे में उल्लेख है, जिसका कि सभी चैनलों ने उल्लेख किया लेकिन साथ ही इसमें इसको अनैतिक और अप्राकृतिक भी करार दिया है, इसको चैनलों ने एडिट कर दिया। और सबसे बड़ी बात इतिहास में अगर किसी बात का जिक्र है तो इसका मतलब यह नहीं है कि वह सर्वमान्य है। अगर ऐसा है तो मैं एक उदाहरण देता हूं, जो तुलसीदास की रामायण में है। उन्होंने लिखा हैः-

ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी,
ये सब है तारण के अधिकारी।।

इसको भी मानिए। मेरा कहने का मतलब यह है कि इतिहास में कई अच्छी और गलत बातों का जिक्र है। उसको हमें उसी रूप में लेना चाहिए। समलैंगिकता के समर्थक लोग ये भूल जाते हैं कि आज अगर समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से निकाला गया है तो इसलिए नहीं की यह बहुत ही अच्छा है। यह सिर्फ इसलिए है कि समलैंगी लोगों में एड्स के खतरे से बचाया जा सके। धारा-377 को खत्म करने की याचिका दायर करने वाली संस्था नाज फाउंडेशन एड्स के खिलाफ लड़ने वाली एक संस्था है। मेडिकली भी यह साबित हो गया है कि अप्राकृतिक यौन संबंध में एड्स का खतरा प्राकृतिक यौन संबंध से कहीं ज्यादा होता है। इसलिए इस कानून में सुधार जरूरी है ताकि वो खुले आम समाज के सामने आ सकें और स्वास्थ्य सेवा ले सकें।

इससे अगल हट के अगर देखा जाए तो समलैंगी संबंध समाज विरोधी और अनैतिक कृत्य है। यहां तक कि भारत के सोलिसीटर जनरल पीपी मल्होत्रा ने भी कहा है कि इससे समाज में गलत संदेश जाएगा और अनैतिकता फैलेगी। ठीक है कि इससे एड्स से लड़ने में इससे सहयोग मिलेगा, लेकिन इस प्रकार के कानून से इसका फैलाव भी होगा। अब शौकिया भी लोग इस प्रकार के कृत्य में शामिल होंगे। हमेशा से ही युवा समाज को हर वो चीज करने में मजा आता है जो लीक से हटकर हो। इससे एड्स का फैलाव ही होगा।

दर्शनशास्त्र में एक अहम विषय है धर्म और नैतिकता। इसमें यह बताया गया है कि धर्म की स्थापना इसलिए हुई ताकि समाज को नैतिक रखा जा सके। हर वो नैतिक नियम जो समाज को व्यवस्थित रखने के लिए जरूरी हैं उनको धर्म का हिस्सा बना दिया गया, ताकि लोग उसको मानने के लिए बाध्य हों। अगर हम स्वतंत्रता के नाम पर इस तरह से हर नैतिक नियमों को तोड़ते रहेंगे तो शायद हमारी सभ्यता वहीं पहुंच जाएगी जहां थे।

सभ्यता के विकास के तहत अगर हम गौर करें तो हम पाते हैं कि पहले लोग जानवरों की तरह रहते थे। न कोई परिवार था न सेक्स का ही कोई नियम था। इसलिए एक ही परिवार में शादियां होती थी और लोग कबायली जीवन जीते थे। इसलिए शुरुआती समय में घर गोलाकार होते थे। सब एक साथ रहते थे। उनके लिए सेक्स कोई निजी चीज नहीं थी। धीरे-धीरे हम पाते हैं कि घर चौकोर बनने लगे और घरों में दीवार उठने लगी। अब इंसान को यह समझ में आने लगा कि कुछ चीजें निजी होती हैं। फिर एक परिवार में शादियां बंद हुईं, फिर एक गोत्र में। इस प्रकार से एक परिवार, एक कुनबा तथा फिर समाज बना। यह मडिकली भी साबित हो गया है कि अगर निकट संबंधियों में वैवाहिक संबंध हो तो जीनेटीकली दोष उत्पन्न होता है। मुस्लिम समाज में यह देखा जाता है क्योंकि अभी भी वह कबायली तरीके से बाहर नहीं निकल पाए हैं। ये सब लिखने का मेरा मतलब सिर्फ इतना है कि समाजिक नियम ऐसे ही नहीं बन गए। ठीक है कुछ गलत नियम भी बने, जिसको समय के साथ खत्म कर दिया गया। लेकिन अभी भी कई नियम ऐसे हैं जो बहुत ही जरूरी हैं।

इसलिए मेरा यह मानना है कि समाज समलैंगिकता को महिमामंडित करना बंद करे। समलैंगी लोग बीमार लोग हैं, जिनको समाज के सहयोग की जरूरत है और हाईकोर्ट का फैसला इस रूप में स्वागत योग्य है। लेकिन समाज में सामान्य लोग इसको इस रूप में न लें जैसे कि जैसे एक नई व्यवस्था शुरू हुई हो। हालांकि अगर समाज उस ओर बढ़ता है तो मुझे कोई अचंभा नहीं होगा। सभ्यता के विकास के क्रम में एक थ्योरी साईक्लिक थ्योरी भी दी गई है। जिसमें कहा गया है कि जिस तेजी से सभ्यता का विकास होता है एक समय के बाद उसी तरह उसका पतन भी होता है। ठीक उसी प्रकार जैसे पहिए का एक हिस्सा ऊपर जाकर तेजी से नीचे गिरता है।

शुक्रवार, 20 फ़रवरी 2009

डार्विन का सवाल, सबका मालिक एक कैसे?

हमेशा से ही इंसान की खोजी दिमाग ने उन सब समस्याओं का समाधान ढूंढने का प्रयास किया जो परेशान करती हैं और उसमें बहुत हद तक सफल भी हुआ। यही कारण है कि मानव सभ्यता जंगल से निकल कर गांवों में और फिर शहरों तक पहुंच गई। लेकिन इन सबके बीच जिन समस्याओं को खोजने में मानव दिमाग सक्षम नहीं हुआ उसको ईश्वरीय कृपा, ईश्वर की लीला, जादू-टोना का नाम दे दिया। इन्हीं सवालों में से एक अहम सवाल है जीवन की शुरुआत कैसे हुई? हमेशा से दार्शनिकों ने इसका हल निकालने की कोशिश की। लेकिन सबका घूम-फिरकर एक ही जवाब आया कि किसी परम तत्व ने हमें बनाया है। उसी ने यह विश्व बनाया है और इसमें जीवों की रचना की है। उस परमतत्व को किसी ने ‘मोनड’ कहा, किसी ने ‘ब्रह्म’ कहा तो किसी ने ‘प्रत्यय’ कहा। लेकिन जीवन की यह धार्मिक व्याख्या एक व्यक्ति को खुश नहीं कर पाई और उसका परेशान मन निकल पड़ा इसकी खोज करने और जब वह इसकी खोज कर वापस आया तो जैसे पूरे विश्व में भूचाल आ गया, क्योंकि उन्होंने ‘सबको बनाने वाला एक है’ इसी पर सवाल उठाते हुए कहा कि जीवों का विकास वस्तुतः प्रकृति का विकासक्रम है और प्रकृति के विकास के साथ ही उससे सामंजस्य बिठाने के क्रम में कई जीव मिट गए और कई जीवों की उत्पति हुई। दुनिया को यह नवीन सिद्धांत देने वाला व्यक्ति था चाल्र्स डार्विन।

जी हां, चाल्र्स डारविन ने सबका मालिक एक है पर सवाल उठाते हुए अपनी किताब ‘ओरिजीन ऑफ स्पीसीज’(Origin Of the Speceis) में सवाल उठाते हुए `विकासवाद का सिद्धांत' (Theory Of Evolution) दिया। जिसमें उन्होंने बताया कि समय के साथ-साथ प्रकृति के साथ समन्वय करते हुए ही जीवन का विकास हुआ। 1831 में ‘बीगल’ नामक जहाज पर उन्होंने अपनी जिज्ञासा को पूरा करने के लिए 5 साल के सफर की शुरुआत की। अपनी इस सफर में वह अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, उत्तर अमेरिका, यूरोपीय देशों की यात्रा की। इन सभी जगहों की जैव विविधता को देखकर उनको आभास हुआ कि भिन्न-भिन्न प्राकृतिक स्थिति के हिसाब से ही जैव विविधता भी है। उन्होंने सवाल भी उठाया कि अगर सबका मालिक एक है तो एक ही जाति के पक्षी विभिन्न देशों में भिन्न-भिन्न क्यों हैं।

उन्होंने कहा कि वास्तव में हम मरने के बाद कहां जाते हैं इस पर सवाल तो उठाया जा सकता है लेकिन हम कैसे बने इस वैज्ञानिक तथ्य पर सवाल नहीं उठाया जा सकता। लेकिन धर्म और आस्था के नाम पर चलने वाली लाखों दुकानों को यह कैसे गवारा होता और शुरू हुआ विरोध का एक नया अध्याय। विकासवाद के सिद्धांत का विरोध करने वालों में एक अहम नाम है हरवर्ट स्पेंसर का जिन्होंने ‘सरवाइवल ऑफ द फीटेस्ट’ का सिद्धांत देकर डार्विन का विरोध किया। जिसमें उन्होंने कहा कि प्रकृति में जो फिट है वही जी सकता है। वस्तुतः डार्विन ने यह कभी नहीं कहा था कि बंदर से बना है इंसान। उन्होंने कहा था कि बंदर, इंसान और वनमानुस के पूर्वज एक ही थी। उन्होंने प्रकृति के साथ बेहतर तालमेल की बात की थी ताकि प्रकृति के साथ जीवन का एक अच्छा तालमेल बैठ सके। लेकिन औपनेवेशिक भूख को शांत करने में जुटे उस समय के सर्वाधिक यूरोपीय मुल्क को स्पेंसर की वह बात ही ज्यादा अच्छी लगी-सरवाइवल ऑफ द फिटेस्ट। हमारे देश में दलितों को किसी योग्य न समझने और दास प्रथा से लेकर महिलाओं की बुरी स्थिति के पीछे यही सोच काम कर रही है।

जहां डार्विन के विरोधी मौजूद हैं वहीं उनके समर्थकों की कमी नहीं है। कार्ल माक्र्स ऐसा ही एक नाम है। जिन्होंने धार्मिक मान्यताओं का खंडन करते हुए इसकी तुलना अफीम से की। जिस दासों एवं मजदूरों के शोषण के खिलाफ कार्ल माक्र्स ने झंडा बुलंद किया उन्हीं दासों की दयनीय स्थिति देखकर डार्विन का भी दिल पसीज गया था। जहां डार्विन ने विकासवाद का सिद्धांत दिया वहीं कार्ल माक्र्स ने सामाजिक विकास की वैज्ञानिक व्याख्या प्रस्तुत की। दासों के शोषण के खिलाफ अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने भी जोरदार संघर्ष किया। यह भी एक अजीब संयोग है कि लिंकन और डार्विन एक ही दिन पैदा हुए थे।

डार्विन के सिद्धांत का विरोध और समर्थन अभी भी जारी है। धार्मिक मान्यता और विकासवाद के सिद्धांत के समर्थकों और विरोधियों के बीच कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्होंने दोनों ही जगह अपना स्थान बना लिया है। यह हर जगह दिख जाता है। यही कारण है कि चंद्र मिशन से पहले वैज्ञानिक नारियल फोड़ते हैं, ऑपरेशन करने से पहले डॉक्टर ईश्वर के आगे हाथ जोड़ते हैं। आपको हर अस्पताल के अंदर या उसके ठीक सामने एक पूजा स्थल जरूर मिल जाएगा। और सबसे महत्वपूर्ण यह कि यहां अल्लाह, राम, ईसू और नानक सब एक हो जाते हैं। आप इन सबको एक ही कमरे में एक दूसरे के आस पास देख सकते हैं। वास्तव में यह विज्ञान और विकास का मेल है। अब लोग धार्मिक मान्यताओं के साथ-साथ वैज्ञानिक खोजों को भी अहमियत देते हैं। इसका कारण एक तो यह है कि विज्ञान ने लोगों के जीवन को आसान बनाया है और कई समस्याओं को दूर किया है और दूसरा लोगों के सामने अभी भी कई समस्याएं हैं जिसका उत्तर विज्ञान के पास नहीं है। वह सवाल जस का तस बना हुआ है कि हम मरने के बाद कहां जाते हैं। इस प्रश्न का उत्तर जब मिलना होगा मिल जाएगा लेकिन दुनिया के बारे में एक नवीन दृष्टि देने वाले डार्विन और उनके विकासवाद के सिद्धांत को सलाम।

शनिवार, 17 जनवरी 2009

‘स्लमडॉग...’ पर क्यों करें वाह-वाह!

स्लमडॉग मिलियनेयर को मिली सफलता पर पूरा देश झूम उठा। सबसे खुशनुमा पहलू यह है कि पहली बार किसी भारतीय संगीतकार (एआर रहमान) को गोल्डन ग्लोब पुरस्कार से नवाजा गया। लेकिन इन सबके बाद भी वह किसी को नहीं दिखा जो बिग बी अमिताभ बच्चन को दिखा। वह है भारत की स्याह छवि जो इस फिल्म में दिखाई गई है। क्या भारत सचमुच सिर्फ ऐसा ही है? क्या विदेशों में गरीबी और भूखमरी नहीं है? अगर हां तो क्यों पश्चिम को वही भारतीय चीज अच्छी लगती है जो भारत का काला पक्ष दिखाता प्रतीत होता है। वास्तव में इसपर सोचने की जरूरत है।

वास्तव में यह आज की बात नहीं है। शुरू से ही वही भारतीय फिल्में पश्चिम में सराही गई जिसमें रोता बिलखता, भ्रष्ट, एक-एक निवाले के लिए मोहताज भारत की छवि को दिखाया गया। सत्यजीत रे ने इसी मजबूर भारत को दिखाकर पश्चिम में वाहवाही लूटी। उन पर यह आरोप भी लगता है कि उन्होंने भारत की गरीबी को पश्चिम में बेचने का काम किया। अपनी कमियों को दिखाना और समझना कोई गलत बात नहीं है, लेकिन उसको बेचने के लिए दूसरों को परोसना बिल्कुल ही निंदनीय है। ठीक है कि भारत में अभी कई समस्याएं मुंह बाए खड़ी हैं, ठीक है अभी बहुत बड़ा तबका सुविधाविहीन है, लेकिन उन्हीं के अंदर वह जोश और जज्बा भी विद्यामान है, जो शायद गरीबी को बेचने वालों को नहीं दिखता। जरूरत उसको दिखाने की है।

अगर ऐसा नहीं है तो जाइए और उन गरीब झोपड़ियों के भीतर झांकिए। अंधेर झोंपड़ी से भी आपको वह अट्टाहास सुनाई देगा जिसके लिए शायद महलों में रहने वाले भी तरसें। यह अट्टाहास कोई करुण व्यथा नहीं है, बल्कि जीवन जीने की कला है। वह जज्बा है जो यह सिखाता है कि जीवन जीने का नाम है। अमिताभ बच्चन ने सही ही कहा कि बॉलीवुड एक बहुत बड़ा बाजार है, जिसमें कई मनोरंजक फिल्में बनती हैं, लेकिन उसकी तरफ किसी का ध्यान नहीं गया। उनको वही फिल्में पसंद आती हैं जिसमें भारत की स्याह छवि दिखती है। ऑस्कर में टॉप-5 में गई उन भारतीयों फिल्मों की तरफ गौर करें तो यह तस्वीर और साफ हो जाएगी। अब तक तीन भारतीय फिल्म टॉप-5 में अपना स्थान बनाने में कामयाब हुईं हैं वह है सलाम बंबई, मदर इंडिया और लगान। यह तीनों ही फिल्में मजबूर, गरीब भारत की ही छवि को दिखाती है।

अब उन साहित्यों की तरफ भी गौर करें जो अब तक विदेशों में चर्चित और पुरस्कृत हुईं हैं। अब तक मान बुकर पुरस्कार से सम्मानित भारतीय पुस्तकों में अरुंधती राय की The God Of Small Things, किरण देसाई की Inheritence Of Loss और हाल ही में अरविंद अडिगा की White Tiger। इन सब किताबों की विषयवस्तु मजबूर, भ्रष्ट, पिछड़ा भारत ही है। इन सब लेखकों ने साहित्य की दुनिया में वही किया जो फिल्मों की दुनिया में सत्यजीत रे ने किया और अगर इन्होंने ऐसा नहीं भी किया तो पश्चिम ने इनको इसलिए सराहा क्योंकि इनमें भारत को वैसा ही दिखाया गया है जैसा वो देखना चाहते हैं।

White Men's Burden की गलतफहमी से लगता है पश्चिम अभी पूरी तरह नहीं उबर पाया है। इस थ्योरी की सहायता से पश्चिम तीसरी दुनिया में अपने शोषणकारी शासन को न्यायसंगत ठहराने की कोशिश करता था, जिसमें कहा गया था कि तीसरी दुनिया के पिछड़े और बर्बर समाज को सभ्य बनाने का जिम्मा उनका है इसलिए उनका शासन जरूरी है। उनका शासन तो चला गया लेकिन अभी तक उनकी दूसरे देशों को पिछड़ा देखने की आदत गई नहीं है। हिंदी में एक बड़ी अच्छी कहावत है ‘रस्सी जल गई पर बल नहीं गया’ उनपर बिल्कुल सटीक बैठती है।

अब एक बार फिर स्लमडॉग मिलियनेयर पर आइए। यह फिल्म विकास स्वरूप के नोवेल Q & A पर आधारित है। इस किताब का मुख्य पात्र राम मोहम्मद थॉमस है। जिसको यह नाम इसलिए दिया गया क्योंकि उसके धर्म को लेकर विवाद खड़ा हो गया। इसलिए तीनों धर्मों को साथ लेते हुए उसका नाम राम मोहम्मद थॉमस रखा गया। लेकिन फिल्म में इसको बना दिया गया जमाल मलिक, जिसकी मां को हिंदू दंगाईयों ने मार दिया। आखिर क्यों? शायद इसलिए कि भारत की काली छवि दिखाकर ही पश्चिम को प्रभावित किया जा सकता था। जरूरत इसी सोच से निकलने की है।

ऐसे में यह हमारी जिम्मेवारी बनती है कि हम भारत की ऐसी छवि को दिखाना बंद करें। यह जिम्मेवारी सबसे अधिक उनलोगों की है जो अब भी बाजार को ध्यान में रखकर काम करते हैं। अब भारत बदल गया है। अब एक भारतीय (सुनील मित्तल) ब्रिटेन में जाकर प्रधानमंत्री आवास के पास एक महल खरीदने की हैसियत रखता है। अब एक भारतीय (बॉबी जिंदल) अमेरिका में जाकर सीनेटर बनने का माद्दा रखता है। भारतीय ज्ञान से तो पूरा पश्चिम स्तब्ध है, जो वहां जाकर अपनी काबिलियत का परचम लहरा रहा है। जो साहित्यकार भारत की भद्दी छवि को दिखाते हैं उनको यह भी ध्यान रखना चाहिए कि जो विदेशी इमदाद और निवेश हमारे यहां हो रहे हैं वह उनकी भारत की स्याह छवि को दिखाने के कारण नहीं है, बल्कि यह भारत की खुद की बढ़ती हैसियत है। अब भारत वह भारत नहीं रहा। इसलिए फिल्मकारों को तथा साहित्यकारों को चाहिए कि वह भी अपनी सोच बदलें। इसका मतलब यह कतई नहीं है कि हम अपनी समस्याओं को देखना बंद कर दें। हम जरूर देखें लेकिन उसको बेचें नहीं। हम उन किताबों को तरजीह दें जिसमें करुण सिसक के साथ एक मुस्कान की आस भी दिखे, काली अंधेरी रात के बाद सुहावनी सुबह भी दिखे।

यह विडंबना है कि भारत की समस्या पर लिखी पुस्तक भारत में प्रसिद्ध होने की बजाय विदेशों में प्रसिद्ध हो जाती है और अवार्ड जीतती है। यह शायद इसलिए कि वह वहीं के लिए लिखी जाती हैं। मुझे नहीं लगता कि भारत में जिन किताबों को साहित्य अकादमी पुरस्कार, सरस्वती सम्मान, व्यास सम्मान आदि से पुरस्कृत किया जाता है उनको पढ़ने की भी जहमत उठाते होंगे, कई लोग तो इन पुरस्कारों के नामों से भी वाकिफ नहीं होंगे, ऐसा क्यों है..........आप बेहतर जानते हैं।

मंगलवार, 6 जनवरी 2009

जल्द ही "गांधी" हो जाएंगे "गैंधी"

मैं पिछले कुछ दिनों से एक प्रयोग कर रहा हूं। प्रयोग कुछ ऐसा कि जिससे पता चले कि हम हिन्दुस्तानी किसी की कॉपी करने में कितने उस्ताद होते हैं। पहले मैं आपको यह बता दूं कि यह प्रयोग है क्या।

मैं अपने मित्रों या जहां कहीं भी मौका मिलता है एक सवाल पूछता हूं। मैं उनसे कहता हूं कि राम ने रावण को मारा, इसको इंग्लिश में बोलो। और वे बिना एक मिनट भी लिए बोलते हैं "रावणा" किल्ड बाय "रामा" मुझे पता है कि आपमें से कई लोग सोच रहे होंगे कि इसमें गलत क्या है।

यह तकनीकी रूप से गलत तो है ही साथ ही हिन्दुस्तानियों की कॉपी करने की आदत का भी जबरदस्त उदाहरण है। क्योकि अंग्रेज राम या रावण नहीं बोल पाते इसलिए वो रामा और रावणा बोलेंगे तो हम भी ऐसा ही करेंगे। और ऐसा हो भी क्यों नहीं हमारे यहां ही तो डुप्लीकेट बनने का फैशन जो है। हमारे यहां हर लोकप्रिय शख्सियत का कोई न कोई डुप्लीकेट जरूर मिल जाता है। अब क्योंकि अंग्रेजी अपनी भाषा तो है नहीं इसलिए वो जैसा बोलते है वैसा ही बोलो, जैसा वो करते हैं वैसा ही करो। मैं यहां करने के बारे में ज्यादा नहीं लिखूंगा नहीं तो विषय से भटक जाउंगा।

इस तकनीकी खामी के साथ आम आदमी बोलें तो समझ में आता है, लेकिन हमारे भारतीय न्यूज चैनल भी कुछ ऐसा ही करते हैं। ए रिपोर्ट फ्रॉम "बरखा" को बोलेंगे ए न्यूज रिपोर्ट फ्रॉम "बारखा"। इसी तरह इंग्लिश न्यूज चैनल के लिए कसाब हो गया "कसब।

किसी नई भाषा को हम अपने सहूलियत के लिए सीखते हैं, न कि अपनी खुद की जुबान बिगाड़ने के लिए। नाम का उसी तरह से उच्चारण होना चाहिए जैसा कि वो है। इसलिए राम, राम हैं न कि रामा। इससे किसी को इनकार नहीं हो सकता कि इंग्लिश हमारी भाषा नहीं है, लेकिन आज के समाज में यह बहुत ही उपयोगी है। खासकर भारत जैसे बहुभाषी देश के लिए जहां हर तीन किमी पर बोली बदल जाती है वहां कोई ऐसी भाषा जरूर होनी चाहिए जो सब समझ सकें और सब बोल सकें। हिंदी ने इस रूप में काफी प्रगति की है लेकिन इंग्लिश के ग्लोबल होने और रोजगारोन्मुख होने से इसकी उपयोगिता और भी बढ़ जाती है। यह अलग बात है कि हिन्दी को भी इस रूप में प्रचारित किया जा सकता था। आप अगर फ्रांस, इटली, जर्मनी, रुस जाएं तो आपको वहां बात करने के लिए उनकी भाषा को सीखना पड़ेगा। मेरा एक दोस्त कुछ दिनों पहले फ्रांस गया था और वह बताता है कि वहां बस एक दो न्यूज चैनल इंग्लिश में है नहीं तो सारे फ्रेंच चैनल हैं। यह होता है अपनी भाषा से लगाव।

लेकिन भारत में ऐसी आशा नहीं कि जा सकती। जब यूरोप में राष्ट्रों का एकीकरण हुआ तो इसका आधार ही या तो भाषा बनी या एक जाति। राष्ट्र की परिकल्पना ही यूरोप में इसी तरह से विकसित हुई। राष्ट्र का मतलब एक जाति, एक धर्म और एक भाषा। लेकिन भारत जैसे बहुसांस्कृतिक, बहुभाषी और बहुधर्मी देश में ऐसा सोचना भी मूर्खता होगी। लेकिन कम से कम हिंदी को मिली राष्ट्रीय भाषा के दर्जे का सम्मान तो करना ही चाहिए। मेरा यह सब लिखने का यह कतई ही उद्देश्य नहीं है कि मैं इंग्लिश विरोधी हूं, इंग्लिश बोलें लेकिन हिन्दुस्तानियों की तरह। मैं हिन्दुस्तानी इसलिए भी कह रहा हूं कि दक्षिण भारतीय लोग इंग्लिश दक्षिण भारतीयों की तरह बोलें, उत्तर भारतीय, उत्तर भारतीयों की तरह न कि अमेरिकी और ब्रिटिशर्स की तरह। कम से कम जो चीज बिल्कुल ही हिन्दुस्तानी है और हिन्दुस्तानी ही उसको जानते हैं कि कैसे बोला जाए वह तो बिल्कुल भी नहीं। नहीं तो वह दिन दूर नहीं जब भारतीयों के लिए भी गांधी हो जाएंगे गैंधी जैसे कि गांगुली हो गए गैंगुली, बरखा हो गई बारखा, कसाब हो गया कसब, द्रविड गए द्राविड। अब आप कहिए..............