शनिवार, 5 दिसंबर 2009

`दिल्ली को भी चाहिए एक राज ठाकरे'

''सा...' दिल्ली में भी एक राज ठाकरे की जरूरत है। हमें खुद तो परेशानी हो रही है और ये सा...' बाहर से आकर दिल्ली को अपनी बपौती समझे हुए हैं।'' जी हां, कुछ ऐसे ही शब्द थे उन महानुभाव के सुबह-सुबह, मेट्रो के सफर में, बड़ी संख्या में लोगों के बीच।

अब आप सोच रहे होंगे कि मैं ये आपको क्यों बता रहा हूं। तो जनाब, मैं ये आपको इसलिए बताना चाहता हूं कि जरा इसके पीछे कारण क्या थे वो भी जानिए।

मेट्रो में लोगों की भीड़ से तो आप सब वाकिफ हैं और आप सब कभी न कभी रू-ब-रू भी हुए होंगे। ऐसे ही एक दिन धक्का-मुक्की करते हुए कुछ लोग मेट्रो में चढ़ने की जंग जीत जाने को उतारू थे। ये अलग बात है कि आराम से भी चढ़ा जा सकता है और अगर नहीं चढ़ पाए तो अगली मेट्रो का इंतजार भी किया जा सकता है। लेकिन ऐसा नहीं है, इसलिए शायद हमारे गृहमंत्री को भी कहना पड़ता है कि दिल्लीवासी अनुशासित हों। खैर, मैं वापस मुद्दे पर आता हूं। हां तो मेट्रो में चढ़ने की जंग जीत जाने के बाद दो लोग और उनके साथ एक महिला ने इस जद्दोजहद के लिए किसी को दोषी साबित करने की सोची। इधर-उधर नजर दौड़ाने के बाद एक मजदूर एक बोरी में सामान लिए निरीह सा खड़ा दिखा। तो फिर क्या था, तोप चलाने के लिए मिल गई उनको मुर्गी।

उन्होंने आव देखा न ताव और बोलना शुरू कर दिया, '' यार ये सुबह सुबह क्या लेकर चढ़ जाते हो''। मैंने सुन कर अनसुना कर दिया। सोचा अब चढ़ने में परेशानी हुई है तो थोड़ा आदमी चिढ़ ही जाता है। इसलिए गलत होने पर भी इसे क्षम्य माना जा सकता है। तभी तपाक से दूसरे ने कहा, '' सुबह-सुबह ध्यान रखा कर यार, ये क्या लेकर चढ़ जाते हो।'' अब मेरे लिए असहनीय था। असहनीय इसलिए था कि अपनी जिंदगी में जो कुछ मैंने सिखा है उसमें अपनी प्रोफेसर के द्वारा सिखाई गई एक बात भी मैंने सिखी है। उन्होंने कहा था कि अगर कुछ भी गलत देखो तो एक बार टोक जरूर दो, अगर इससे एक प्रतिशत भी फर्क पड़ता है तो समझो तुम्हारा काम हो गया। मेरे मन में सीधे उन्ही की बात कौंधी।

मैंने भी सीधे उन महानुभव से कहा, '' क्यों भाई साहब क्या ये अपना सामान बाहर ही फेंक कर आए क्या? उन्होंने शायद इसकी आशा नहीं की थी। सो कुछ क्षण के लिए तो वे सकपका गए, फिर कहा कि आपको क्या मतलब है? मैंने फिर कहा कि मेट्रो सिर्फ खास लोगों के लिए ही नहीं है, आम आदमी भी सफर करेंगे। इतने में देवी जी बोली, '' ठीक है भाई साहब, आप क्यों इतना गुस्सा कर रहे हो, आपका सामान तो चढ़ गया ना।" मैंने कहा, " मैडम, पहली बात तो मेरा सामान है ही नहीं, और दूसरी बात कि अगर मेरा सामान होता तो शायद आप बोलती भी नहीं। मैंने बगल में ही खड़े एक सज्जन की तरफ इशारा करके दिखाया कि इनके पास उस मजदूर से कहीं अधिक सामान है, आपने इनको कुछ क्यों नहीं बोला। शायद इसलिए कि ये साहब शूट बूट में हैं" इसके बाद वो सब चुप हो गए। लेकिन चंद मिनटों बाद एक तीसरे आदमी ने उन लोगों से वही कहना शुरू दिया, जिससे मैंने इस लेख की शुरुआत की है। मैंने फिर इसका जवाब देना उचित नहीं समझा, क्योंकि किसी की बकवास का जवाब देने से बात ही बढ़ती है, और फिर वह मुहावरा भी तो चरितार्थ होता दिख रहा था, खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे। साथ ही वहां खड़े अधिकतर लोगों के चेहरों पर मेरे बोलने का जो संतोष दिख रहा था, वही मेरे लिए यह जानने के लिए काफी था कि मेरा काम हो गया। साथ में मुझे एक बार फिर यह विश्वास हुआ कि ज्यादातर लोग दुनिया में अच्छे ही होते हैं।

इस घटना के बीते तो दो दिन हो गए हैं, लेकिन मेरे मन में कई सवाल उमड़ रहे हैं, जिसका जवाब मेरा खिन्न मन शायद ढूंढ पान में असमर्थ है। पहला तो ये कि क्या जैसे-जैसे आदमी आर्थिक रूप से ऊपर की ओर बढ़ता है, अपने से कमतर लोगों के प्रति असंवेदनशील हो जाता है? मैं खुद अपने अंदर झांकने की कोशिश करता हूं तो शायद बदतमीजी से जब कभी भी मैंने बात की हो, वह आर्थिक रूप से छोटे लोगों से ही की है। हालांकि मैं हमेशा कोशिश करता हूं कि मुझसे ऐसा अपराध नहीं हो।

आपको नहीं लगता कि आज का समाज, शिक्षा पद्धति, जीवन दर्शन सब एक ही तरफ बढ़ रहा है, "आर्थिक उन्नति की तरफ"। लेकिन परेशान करने वाली चीज यह है कि यह उन्नति हमें असंवेदनशील क्यों बना रहा है। प्रगति संसार का नियम है, समाज हमेशा से आगे की तरफ ही बढ़ा है, लेकिन इस उन्नयन से अगर असंवेदनशीलता का जन्म हो तो फिर ऐसी प्रगित से क्या फायदा। समाज के प्रति, कर्तव्यों के प्रति, अनुशासन के प्रति, पर्यावरण के प्रति, संबंधों के प्रति और न जाने जीवन के और कितने भी पहलू जोड़ लें सबके प्रति हम संवेदनशील ही तो होते जा रहे हैं। अभी के समय में कवि की वो पंक्तियां चरितार्थ हो रही हैं जिसमें उन्होंने कहा था-

कुछ नहीं दिखता था अंधेरे में मगर, आंखें तो थीं,
ये कैसी रोशनी आई कि सब अंधे हो गए।।

90 के दशक के बाद जिस सूचना क्रांति के दौर में हम जी रहे हैं, उसमें ज्ञान का मतलब ही सिर्फ सूचना हो गई है। सूचना और ज्ञान के प्रति वह विभाजक रेखा कहीं मिट गई है। आज जो जितना सूचित है वही ज्ञानी है। जबकि जीवन दर्शन, सामाजशास्त्र जैसी चीजें जिससे हमारा जीवन संचालित होता है वह ज्ञान कहीं लुप्त हो गया है। पहले के समय में ज्ञानी उसी को समझा जाता था, जो जीवन जीने की कला, जीवन में शांति प्राप्त करने की कला और समाज को व्यवस्थित रहने की कला को सिखाता था। अब दार्शनिक, समाजशास्त्री सबको हम प्रगति के अंधी दौड़ में पागल घोषित करने में लगे हुए हैं।

आपको नहीं लगता कि इसी ज्ञान रूपी क्षेत्रों को जीवित करने की जरूरत है। ताकि लोग संवेदनशील बनें, सामाजिक बनें। अगर ऐसा हुआ तो न किसी कोपेनहेगन सम्मेलन की जरूरत होगी, न महिलाओं के प्रति हिंसा रोकने के लिए वृहद प्रचार की जरूरत होगी, न कोई अमीरजादा सड़क पर सो रहे लोगों को कुचलेगा, न आतंक के खिलाफ वैश्विक मुहिम की जरूरत होगी, न ट्रेन की जनरल बॉगी में कुछ हजार रुपये लेकर जा रहे मजदूरों से पुलिस पैसे छिनेंगी, न लुधियाना में लुटे जाने के विरोध में ट्रकों में मजदूर आग लगाएंगे। न कोई राज ठाकरे पैदा होगा। आप क्या सोचते हैं? जरा सोचिए.......और मेरी उद्विगनता भी दूर कीजिए।