सोमवार, 11 मई 2020

बस ५ करोड़ ही तो थे हम...

मैं कई बार ये सोच कर हैरत में पड़ जाता हूं कि क्या प्रवासियों को संभालना सही में मुश्किल है। कई तरह के पोस्ट देखे, कुछ में मजदूरों की लाचारी, कुछ में सरकार की अक्षमता तो कुछ में मजदूरों के असीम कष्ट का जिक्र पाया, कुछ में मजदूरों की बेवकूफी का जिक्र पाया कि कोई कैसे ट्रैक पर सो सकता है। वे सब पोस्ट सही है और किसी ना किसी दृष्टिकोण के आधार पर लिखी गई हैं। पर मजदूरों कि इस समस्या के मूल में ये प्रश्न है कि क्या केंद्र सरकार या राज्य सरकारें इन मजदूरों के लिए वास्तव में कुछ कर सकती थी?

अगर २०११ के जनसंख्या रिपोर्ट को देखा जाए तो आप पाएंगे कि प्रवासी मजदूरों कि संख्या ४५ करोड़ है। इतनी बड़ी संख्या को देखकर यही लगता है कि कोई भी सरकार आखिर कैसे इतने लोगों को इनके घर पहुंचा सकती है? लेकिन आपको जानकर हैरत होगी कि इन ४५ करोड़ में से ४० करोड़ अपने ही राज्य के अंदर प्रवासी हैं। मूल समस्या सिर्फ 5 करोड़ प्रवासियों को या तो उनके घर पहुंचाने या फिर उनके लिए समुचित व्यवस्था करने का है। अगर कुछ मुख्य राज्यों में बाहरी प्रवासियों की संख्या देखी जाए तो तस्वीर और साफ हो जाएगी। जैसे महाराष्ट्र में बाहरी प्रवासी मजदूरों कि संख्या ३१ लाख है, जबकि गुजरात में यह संख्या ३९ लाख है, वहीं पंजाब में यह संख्या करीब २५ लाख है। इन आंकड़ों को देखकर तो यही समझ में आता है कि अगर सरकारों में राजनीतिक इच्छाशक्ति हो तो इतने लोगों की व्यवस्था करना कोई बड़ी बात नहीं है, वह भी तब जब देश की जनता लोगों को मदद करने में पीछे नहीं है।

अगर भारतीय रेलवे की क्षमता को ही देखा जाए तो आंकड़ों के मुताबिक ३ करोड़ लोग २०००० रेलगाड़ियों कि सहायता से हर रोज़ सफर करते है। अगर इसमें सड़क परिवहन भी जोड़ दिया जाए तो यह संख्या और बढ़ जाएगी, क्यूंकि नेशनल हाईवे अथॉरिटी के अनुसार कुल पैसेंजर परिवहन का ८० फीसदी सड़क परिवहन के द्वारा ही पूरा किया जाता है।

ऐसे में सवाल ये है कि क्या इन ५ करोड़ लोगों को पूरे सम्मान के साथ अपने घर पहुंचाने का विकल्प सोचा नहीं जा सकता था? अगर ऐसा होता तो आज ये मजदूर सड़कों पर भटकते नहीं दिखते और ना ही सरकार को इतनी आलोचना झेलनी पड़ती। संकट के समय एक समाज जरूरतमदों का ख्याल कैसे रखता है इसी से उसकी मजबूती का स्तर तय होता है।

2 टिप्‍पणियां:

raghvendrasingh237@gmail.com ने कहा…

सर वाकई में ये सब सरकार के इच्छाशक्ति पे ही निर्भर करता है। आपके इस ब्लॉग में दिए गए आंकड़े इस बात की तरफ इशारा कर रहे हैं कि ये काम मुश्किल नही था। वो कहते हैं ना कि आंकड़े बोलते हैं।

Abhishek Gaurav ने कहा…

सर, इस विषय पर आपके और भी कई लोग है जिनको पढ़ने के बाद, और खुद की जो समझ है, उसके आधार पर मैं यही समझ पा रहा हूं कि प्रवासी मजदूरों/कामगारों को आज भी एक निम्न स्तर से देखा जा रहा है,तथा लोकतंत्र में इनकी भागीदरी को कम महत्व दिया जा रहा है। अतः सरकारों (केंद्र एवं राज्य) को समान महत्व देना चाहिए और भविष्य में नीतियां इनको ध्यान में भी रख कर बनानी चाहिए।