सोमवार, 7 सितंबर 2015

सिर्फ सोच से नहीं बनेंगे शौचालय

कल यहीं के एक पासआउट विद्यार्थी से बात हो रही थी, जो एक अंतरराष्ट्रीय एनजीओ के साथ बिहार के ही एक दूर-दराज के जिले में सामाजिक अभिप्रेरणा के कार्य में लगा है। उसका काम गांव में लोगों को शौचालय बनवाने और उसके प्रयोग को बढ़ावा देना है।


बातचीत के दौरान पता चला कि जिस गांव में वह काम कर रहा है उसका सामाजिक-आर्थिक ढ़ांचा कुछ इस तरीके का है जिसमें कुछ ही लोगों के पास जमीन है, और उन्हीं लोगों ने गरीब लोगों को अपनी जमीन पर बसाया हुआ है। इसके कारण उनको सस्ता और आसानी से उपलब्ध मानव श्रम मिलता है, न सिर्फ अपने खेतों के लिए बल्कि अपने घरों के लिए भी। ऐसे में उन कुछ प्रभावी लोगों की सामाजिक और आर्थिक उच्चता का आधार ही इस व्यवस्था को बनाए रखना है। क्योंकि अगर यह टूटा तो उनका सामाजिक और आर्थिक आधार भी बिखर जाएगा। ऐसे में ये लोग चाहते ही नहीं हैं कि गरीब आम लोग बदलें, क्योंकि अगर बदलाव की शुरुआत हुई तो वह कहां जाकर रूकेगी इसको नियंत्रित नहीं किया जा सकता। यह बात हकीकत के कितने करीब है इसका अंदाजा आप इसी से लगा सकते हैं कि हमारे वित्त मंत्री अरूण जेटली ने भी माना है कि देश में हर तीन ग्रामीणों में एक ग्रामीण भूमिहीन है।

ऐसे में शौचालय बनवाने को लेकर जागरूरकता में कई बाधाएं हैं। पहला तो यह कि अभियान के दौरान समाज के प्रभावी लोग दिखाते तो जरूर हैं कि वह भी ऐसा ही चाहते हैं लेकिन अंदरूनी तौर पर नहीं चाहते कि यह बदलाव हो। दूसरी समस्या आती है जमीन की। जिन बस्तियों में इन लोगों को बसाया गया है उसकी बसावट इतनी सघन होती है कि हर घर में शौचालय सुनने में ही अच्छा लगता है जबकि उसके लिए जमीन ही मुहैया नहीं हो पाती। तीसरी समस्या सामाजिक सोच की भी है जिसमें उनको बाहर शौच जाने में कुछ भी खराब नहीं लगता, उल्टा उन्हें यह स्वास्थ्य के लिए अच्छा ही लगता है।

एनजीओ कार्यकर्ता ने कहा कि सामाजिक सोच को तो दूर हमलोग कर भी दें, लेकिन आर्थिक-सामाजिक बंधन जो समाज में प्रभाविता से गहराई से जुड़ा है को कैसे तोड़ेंगे। दूसरा शौचालय बनवाने में जो बसावट संबंधी समस्या है उसको कैसे दूर करेंगे। अगर हम सरकारी विज्ञापनों से लेकर अभियानों का गहराई से अध्ययन करें तो पाते हैं कि सारा जोर लोगों को जागरूक करने पर है, बाधाओं को दूर करने के लिए जो प्रशासनिक प्रयास होने चाहिए उस पर नहीं। किसी भी सामाजिक अभियान की सफलता का आधार जमीनी हकीकत से उसका नाता होता है, बिना जमीनी हकीकत को बदले कोई भी परिवर्तन हो ही नहीं सकता, बस वह एक अभियान बनकर रह जाएगा जिसका जितना चाहे गुणगान आप करते रहें।

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