रविवार, 27 जुलाई 2008

कैसे भूलें वह मंजर

जब-जब सीरियल ब्लास्ट होते हैं तो लोग मारे जाते हैं, सरकार जांच करवाने में जुट जाती है, मरने वालों और घायलों के लिए मआवजा घोषित किया जाता है और कुछ दिनों में सबकुछ समान हो जाता है। लेकिन इन आतंकी हमलों में जो मानवीय संवेदनाएं टूटती हैं, उसकी भरपाई कभी नहीं हो पाती।

प्रत्येक हमले में कई ऐसे वाकये सामने आते हैं, जिसको सुनकर दिल दहल जाता है। अहमदाबाद में हुए आतंकी हमले का ही उदाहरण ले लें। अस्पताल में एक बच्च जीवन और मौत से जूझ रहा है और अपनी मम्मी को ढूंढ रहा है। लेकिन उसको पुचकारने और चुप कराने के लिए उसकी मां और पिता में से कोई नहीं है। उसके माता-पिता दोनों धमाकों में मारे गए हैं। उसका एक बड़ा भाई है, वह भी धमाकों के कारण बुरी तरह से घायल अस्पताल में ही पड़ा है। उसी तरह एक बूढ़े पिता के दिल का दर्द सुने। उसका जवान बेटा धमाकों में मारा गया है। लेकिन उनमें इतनी हिम्मत नहीं है कि वह अपने बेटे की लाश को जाकर ले आएं। जब उनसे पूछा गया कि उनका बेटा कहां है, तो बस वह फूट-फूटकर रो पड़ते हैं।

मन को दहला देने वाले कई ऐसी घटनाएं हैं, जिसके बारे में बस कहा और लिखा ही जा सकता है। सीमा पर लड़ने वाले जवानों को दो पता होता है कि हमला किधर से होगा। उनके पास लड़ने के लिए हथियार भी होता है। लेकिन इन आम इसानों को क्या, जिनको न तो पता होता है कि हमला किधर से होगा और न ही उनको पता होता है कि उन्हें लड़ना किससे है। बिना लड़े ही देश के दुश्मनों के हाथों शहीद हुए इन जांबाजों को सलाम।

सोमवार, 7 जुलाई 2008

अब मां-बाप की भी आउटसोर्सिंग

पहले नौकरियां, उसके बाद स्वास्थ्य सेवा, जिसके तहत हजारों की संख्या में ब्रिटेन के लोग भारत आकर इलाज कराना ज्यादा बेहतर समझते हैं। और अब बारी है मां-बाप के आउटसोर्सिग की। इन सब का कारण एक ही है पैसे की बचत।

हाल ही में एक ब्रिटेन के परिवार ने अपने माता-पिता को गोवा के एक वृद्धा आश्रम में भेज दिया, क्योंकि यहां पर उनकी देख-रेख में आने वाला खर्च ब्रिटेन में आने वाले खर्च के काफी कम है। इसी तरह न्यूयार्क के एक परिवार ने जो पिछले तीन साल से अपने माता-पिता की देखरेख वहीं न्यूयार्क में कर रहे थे, अब पैसे का बोझ कम करने के लिए उन्हें भारत स्थांनांतरित करने का फैसला किया है। इन जैसे ही पता नहीं कितने ही लोग अपने मां-बाप को ढ़लती उम्र में देश निकाला देने की तैयारी कर रहे हैं।

जनरल मेडिकल काउंसिल के अध्यक्ष शिव पांडे कहते हैं कि यह कोई नई बात नहीं है। ब्रिटेन में रहने वाले अधिकतर भारतीय वृद्धावस्था में रिटायरमेंट के बाद भारत ही आकर रहना पसंद करते हैं। लेकिन इन दोनों ही बातों में एक अंतर है। जो भारतीय विदेश गए हैं, उनका उद्देश्य बाहर जाकर पैसे कमाना होता है, इसलिए जब पैसे कमाने के मौके खत्म हो जाते हैं तो वे अपने देश ही आकर रहना पसंद करते हैं। कई भारतीय तो 10 या 20 सालों में ही अपने देश आ जाते हैं।

लेकिन वे विदेशी लोग जो अपने मां-बाप को बाहर भेजना चाहते हैं उनका मात्र उद्देश्य पैसा बचाना ही है। कोई भी मां-बाप अपना अंतिम समय अपने बच्चों के साथ रहकर गुजारना चाहते हैं। उनके अपने बच्चे अपने साथ रखना तो छोड़िए वे तो उन्हें उनके देश से ही बाहर निकाल रहे हैं।

हो भी क्यों नहीं आज के पूंजीवादी समाज में जहां हर संबंध पैसे पर तय होते हैं, वहां किसी के प्रति मानवीय संवेदना की आशा करना ही व्यर्थ है। जरूरत पूरी, संबंध खत्म। अब मां-बाप के साथ भी लोग फायदे और नुकसान को देखते हुए संबंधों को रखने लगे हैं। यही तो है आज का प्रोफेशनलिज्म।

अपने भी देश में स्थिति कोई बहुत अच्छी नहीं है। आए दिन खबर आती रहती है कि बेटों ने मां-बाप को घर से निकाला। अगर घर से नहीं भी निकाला तो उनकी स्थिति अपने ही घर में बड़ी ही दयनीय हो जाती है। भारत में भी लोगों में अकेले रहने की प्रवृति बढ़ी है। यही कारण है कि यहां भी वृद्धाश्रमों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। अगर आने वाले दिनों में भारतीय भी अपने मां-बाप को नेपाल या कोई अन्य गरीब अफ्रीकी देशों में आउटसोर्स कर दें तो हैरान मत होईएगा।

इस मौके पर तो मुझे निदा फाजली की कुछ लाइनें याद आ रही हैं जो उन्होंने `मां' नामक कविता में लिखी थी -
बीवी, बेटी, बहन, पड़ोसन,
थोड़ी-थोड़ी सी सब में,
दिन भर एक रस्सी के ऊपर,
चलती नटनी जैसी मां।
बांट के अपना चेहरा माथा,
आंखें जाने कहां गई,
फटे-पुराने एक एलबम में,
चंचल लड़की जैसी मां।

शनिवार, 5 जुलाई 2008

विदेश नीति से तय होती घरेलू राजनीति

देश में मंहगाई आसमान छू रही है, जिसको लेकर ज्यादा चर्चा नहीं है। अगर चर्चा का कोई मुद्दा है तो अभी है अमेरिका के साथ परमाणु करार। इसको लेकर जो बवाल पिछले कुछ दिनों से खड़ा हुआ है, वह और अधिक बढ़ता नजर आ रहा है।

इससे न सिर्फ सरकार के भाग्य को लेकर सवाल खड़ा हो गया है बल्कि आने वाले चुनावों को देखते हुए पार्टियों के बीच गठजोड़ भी शुरू हो गया है।

एक तरफ जहां कांग्रेसकी विरोधी समाजवादी पार्टी आने वाले लोकसभा चुनाव को देखते हुए कांग्रेस के साथ आती दिख रही है। वहीं दूसरी तरफ यूनाइटेड नेशनल प्रोग्रेसिवएलाइंस (यूएनएपी) ने यह साफ कर दिया है कि अगर समाजवादी पार्टी करार का समर्थन करती है तो उसके लिए यूएनएपी में कोई जगह नहीं है, हालांकि समाजवादी पार्टी ने यह साफ कर दिया है कि वह परमाणु करार मुद्दे पर सरकार के साथ है।

इस राजनीतिक खेमेबंदी के बीच भारतीय जनता पार्टी ने भी यूएनएपी को अपने करीब लाने का प्रयास तेज कर दिया है। भाजपा नेता जसवंत सिंह ने कहा कि उनकी पार्टी ने यूएनपीए को केंद्र में सरकार बनाने के लिए कहा था। भाजपा ने बहुजन समाज पार्टी से भी नजदीकी बढ़ानी शुरू कर दी है।

वाम दलों का भी परमाणु करार पर इतने तीखे विरोध का कारण उसका अपना वोट बैंक ही है। वाम दलों की नीति हमेशा से ही अमेरिका विरोधी रहा है। डील मुद्दे पर वह सरकार का साथ देकर किसी सैद्धांतिक उलझव में नहीं पड़ना चाहता। आने वाले चुनावों में वह ऐसे सैद्धांतिक उलझव के साथ कतई नहीं जाना चाहेगा, जिसका वह हमेशा से विरोध करता रहा है।

जिस परमाणु करार के विरोधी इसकी मौत का फरमान लिखने के लिए बेताब था वह फिर से पुनर्जीवित होता दिख रहा है,साथ ही यह घरेलू राजनीति को भी तय कर रहा है। समस्त पार्टी इसी को केंद्र में रखकर अपना समीकरण बिठाने में लग गए हैं।