पहले नौकरियां, उसके बाद स्वास्थ्य सेवा, जिसके तहत हजारों की संख्या में ब्रिटेन के लोग भारत आकर इलाज कराना ज्यादा बेहतर समझते हैं। और अब बारी है मां-बाप के आउटसोर्सिग की। इन सब का कारण एक ही है पैसे की बचत।
हाल ही में एक ब्रिटेन के परिवार ने अपने माता-पिता को गोवा के एक वृद्धा आश्रम में भेज दिया, क्योंकि यहां पर उनकी देख-रेख में आने वाला खर्च ब्रिटेन में आने वाले खर्च के काफी कम है। इसी तरह न्यूयार्क के एक परिवार ने जो पिछले तीन साल से अपने माता-पिता की देखरेख वहीं न्यूयार्क में कर रहे थे, अब पैसे का बोझ कम करने के लिए उन्हें भारत स्थांनांतरित करने का फैसला किया है। इन जैसे ही पता नहीं कितने ही लोग अपने मां-बाप को ढ़लती उम्र में देश निकाला देने की तैयारी कर रहे हैं।
जनरल मेडिकल काउंसिल के अध्यक्ष शिव पांडे कहते हैं कि यह कोई नई बात नहीं है। ब्रिटेन में रहने वाले अधिकतर भारतीय वृद्धावस्था में रिटायरमेंट के बाद भारत ही आकर रहना पसंद करते हैं। लेकिन इन दोनों ही बातों में एक अंतर है। जो भारतीय विदेश गए हैं, उनका उद्देश्य बाहर जाकर पैसे कमाना होता है, इसलिए जब पैसे कमाने के मौके खत्म हो जाते हैं तो वे अपने देश ही आकर रहना पसंद करते हैं। कई भारतीय तो 10 या 20 सालों में ही अपने देश आ जाते हैं।
लेकिन वे विदेशी लोग जो अपने मां-बाप को बाहर भेजना चाहते हैं उनका मात्र उद्देश्य पैसा बचाना ही है। कोई भी मां-बाप अपना अंतिम समय अपने बच्चों के साथ रहकर गुजारना चाहते हैं। उनके अपने बच्चे अपने साथ रखना तो छोड़िए वे तो उन्हें उनके देश से ही बाहर निकाल रहे हैं।
हो भी क्यों नहीं आज के पूंजीवादी समाज में जहां हर संबंध पैसे पर तय होते हैं, वहां किसी के प्रति मानवीय संवेदना की आशा करना ही व्यर्थ है। जरूरत पूरी, संबंध खत्म। अब मां-बाप के साथ भी लोग फायदे और नुकसान को देखते हुए संबंधों को रखने लगे हैं। यही तो है आज का प्रोफेशनलिज्म।
अपने भी देश में स्थिति कोई बहुत अच्छी नहीं है। आए दिन खबर आती रहती है कि बेटों ने मां-बाप को घर से निकाला। अगर घर से नहीं भी निकाला तो उनकी स्थिति अपने ही घर में बड़ी ही दयनीय हो जाती है। भारत में भी लोगों में अकेले रहने की प्रवृति बढ़ी है। यही कारण है कि यहां भी वृद्धाश्रमों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। अगर आने वाले दिनों में भारतीय भी अपने मां-बाप को नेपाल या कोई अन्य गरीब अफ्रीकी देशों में आउटसोर्स कर दें तो हैरान मत होईएगा।
इस मौके पर तो मुझे निदा फाजली की कुछ लाइनें याद आ रही हैं जो उन्होंने `मां' नामक कविता में लिखी थी -
बीवी, बेटी, बहन, पड़ोसन,
थोड़ी-थोड़ी सी सब में,
दिन भर एक रस्सी के ऊपर,
चलती नटनी जैसी मां।
बांट के अपना चेहरा माथा,
आंखें जाने कहां गई,
फटे-पुराने एक एलबम में,
चंचल लड़की जैसी मां।
ये कौन है जो पत्थर फेंक रहा, कौन है जो आग लगा रहा है
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ये कौन है जो पत्थर फेंक रहा है,
इंसानियत को लहूलुहान कर रहा है।
ये कौन है जो आग लगा रहा है।
दुकानों ही नहीं भाईचारे को भी जला रहा है।
क्यों सड़कों पर बिखरा...
4 वर्ष पहले
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