शनिवार, 17 जनवरी 2009

‘स्लमडॉग...’ पर क्यों करें वाह-वाह!

स्लमडॉग मिलियनेयर को मिली सफलता पर पूरा देश झूम उठा। सबसे खुशनुमा पहलू यह है कि पहली बार किसी भारतीय संगीतकार (एआर रहमान) को गोल्डन ग्लोब पुरस्कार से नवाजा गया। लेकिन इन सबके बाद भी वह किसी को नहीं दिखा जो बिग बी अमिताभ बच्चन को दिखा। वह है भारत की स्याह छवि जो इस फिल्म में दिखाई गई है। क्या भारत सचमुच सिर्फ ऐसा ही है? क्या विदेशों में गरीबी और भूखमरी नहीं है? अगर हां तो क्यों पश्चिम को वही भारतीय चीज अच्छी लगती है जो भारत का काला पक्ष दिखाता प्रतीत होता है। वास्तव में इसपर सोचने की जरूरत है।

वास्तव में यह आज की बात नहीं है। शुरू से ही वही भारतीय फिल्में पश्चिम में सराही गई जिसमें रोता बिलखता, भ्रष्ट, एक-एक निवाले के लिए मोहताज भारत की छवि को दिखाया गया। सत्यजीत रे ने इसी मजबूर भारत को दिखाकर पश्चिम में वाहवाही लूटी। उन पर यह आरोप भी लगता है कि उन्होंने भारत की गरीबी को पश्चिम में बेचने का काम किया। अपनी कमियों को दिखाना और समझना कोई गलत बात नहीं है, लेकिन उसको बेचने के लिए दूसरों को परोसना बिल्कुल ही निंदनीय है। ठीक है कि भारत में अभी कई समस्याएं मुंह बाए खड़ी हैं, ठीक है अभी बहुत बड़ा तबका सुविधाविहीन है, लेकिन उन्हीं के अंदर वह जोश और जज्बा भी विद्यामान है, जो शायद गरीबी को बेचने वालों को नहीं दिखता। जरूरत उसको दिखाने की है।

अगर ऐसा नहीं है तो जाइए और उन गरीब झोपड़ियों के भीतर झांकिए। अंधेर झोंपड़ी से भी आपको वह अट्टाहास सुनाई देगा जिसके लिए शायद महलों में रहने वाले भी तरसें। यह अट्टाहास कोई करुण व्यथा नहीं है, बल्कि जीवन जीने की कला है। वह जज्बा है जो यह सिखाता है कि जीवन जीने का नाम है। अमिताभ बच्चन ने सही ही कहा कि बॉलीवुड एक बहुत बड़ा बाजार है, जिसमें कई मनोरंजक फिल्में बनती हैं, लेकिन उसकी तरफ किसी का ध्यान नहीं गया। उनको वही फिल्में पसंद आती हैं जिसमें भारत की स्याह छवि दिखती है। ऑस्कर में टॉप-5 में गई उन भारतीयों फिल्मों की तरफ गौर करें तो यह तस्वीर और साफ हो जाएगी। अब तक तीन भारतीय फिल्म टॉप-5 में अपना स्थान बनाने में कामयाब हुईं हैं वह है सलाम बंबई, मदर इंडिया और लगान। यह तीनों ही फिल्में मजबूर, गरीब भारत की ही छवि को दिखाती है।

अब उन साहित्यों की तरफ भी गौर करें जो अब तक विदेशों में चर्चित और पुरस्कृत हुईं हैं। अब तक मान बुकर पुरस्कार से सम्मानित भारतीय पुस्तकों में अरुंधती राय की The God Of Small Things, किरण देसाई की Inheritence Of Loss और हाल ही में अरविंद अडिगा की White Tiger। इन सब किताबों की विषयवस्तु मजबूर, भ्रष्ट, पिछड़ा भारत ही है। इन सब लेखकों ने साहित्य की दुनिया में वही किया जो फिल्मों की दुनिया में सत्यजीत रे ने किया और अगर इन्होंने ऐसा नहीं भी किया तो पश्चिम ने इनको इसलिए सराहा क्योंकि इनमें भारत को वैसा ही दिखाया गया है जैसा वो देखना चाहते हैं।

White Men's Burden की गलतफहमी से लगता है पश्चिम अभी पूरी तरह नहीं उबर पाया है। इस थ्योरी की सहायता से पश्चिम तीसरी दुनिया में अपने शोषणकारी शासन को न्यायसंगत ठहराने की कोशिश करता था, जिसमें कहा गया था कि तीसरी दुनिया के पिछड़े और बर्बर समाज को सभ्य बनाने का जिम्मा उनका है इसलिए उनका शासन जरूरी है। उनका शासन तो चला गया लेकिन अभी तक उनकी दूसरे देशों को पिछड़ा देखने की आदत गई नहीं है। हिंदी में एक बड़ी अच्छी कहावत है ‘रस्सी जल गई पर बल नहीं गया’ उनपर बिल्कुल सटीक बैठती है।

अब एक बार फिर स्लमडॉग मिलियनेयर पर आइए। यह फिल्म विकास स्वरूप के नोवेल Q & A पर आधारित है। इस किताब का मुख्य पात्र राम मोहम्मद थॉमस है। जिसको यह नाम इसलिए दिया गया क्योंकि उसके धर्म को लेकर विवाद खड़ा हो गया। इसलिए तीनों धर्मों को साथ लेते हुए उसका नाम राम मोहम्मद थॉमस रखा गया। लेकिन फिल्म में इसको बना दिया गया जमाल मलिक, जिसकी मां को हिंदू दंगाईयों ने मार दिया। आखिर क्यों? शायद इसलिए कि भारत की काली छवि दिखाकर ही पश्चिम को प्रभावित किया जा सकता था। जरूरत इसी सोच से निकलने की है।

ऐसे में यह हमारी जिम्मेवारी बनती है कि हम भारत की ऐसी छवि को दिखाना बंद करें। यह जिम्मेवारी सबसे अधिक उनलोगों की है जो अब भी बाजार को ध्यान में रखकर काम करते हैं। अब भारत बदल गया है। अब एक भारतीय (सुनील मित्तल) ब्रिटेन में जाकर प्रधानमंत्री आवास के पास एक महल खरीदने की हैसियत रखता है। अब एक भारतीय (बॉबी जिंदल) अमेरिका में जाकर सीनेटर बनने का माद्दा रखता है। भारतीय ज्ञान से तो पूरा पश्चिम स्तब्ध है, जो वहां जाकर अपनी काबिलियत का परचम लहरा रहा है। जो साहित्यकार भारत की भद्दी छवि को दिखाते हैं उनको यह भी ध्यान रखना चाहिए कि जो विदेशी इमदाद और निवेश हमारे यहां हो रहे हैं वह उनकी भारत की स्याह छवि को दिखाने के कारण नहीं है, बल्कि यह भारत की खुद की बढ़ती हैसियत है। अब भारत वह भारत नहीं रहा। इसलिए फिल्मकारों को तथा साहित्यकारों को चाहिए कि वह भी अपनी सोच बदलें। इसका मतलब यह कतई नहीं है कि हम अपनी समस्याओं को देखना बंद कर दें। हम जरूर देखें लेकिन उसको बेचें नहीं। हम उन किताबों को तरजीह दें जिसमें करुण सिसक के साथ एक मुस्कान की आस भी दिखे, काली अंधेरी रात के बाद सुहावनी सुबह भी दिखे।

यह विडंबना है कि भारत की समस्या पर लिखी पुस्तक भारत में प्रसिद्ध होने की बजाय विदेशों में प्रसिद्ध हो जाती है और अवार्ड जीतती है। यह शायद इसलिए कि वह वहीं के लिए लिखी जाती हैं। मुझे नहीं लगता कि भारत में जिन किताबों को साहित्य अकादमी पुरस्कार, सरस्वती सम्मान, व्यास सम्मान आदि से पुरस्कृत किया जाता है उनको पढ़ने की भी जहमत उठाते होंगे, कई लोग तो इन पुरस्कारों के नामों से भी वाकिफ नहीं होंगे, ऐसा क्यों है..........आप बेहतर जानते हैं।

मंगलवार, 6 जनवरी 2009

जल्द ही "गांधी" हो जाएंगे "गैंधी"

मैं पिछले कुछ दिनों से एक प्रयोग कर रहा हूं। प्रयोग कुछ ऐसा कि जिससे पता चले कि हम हिन्दुस्तानी किसी की कॉपी करने में कितने उस्ताद होते हैं। पहले मैं आपको यह बता दूं कि यह प्रयोग है क्या।

मैं अपने मित्रों या जहां कहीं भी मौका मिलता है एक सवाल पूछता हूं। मैं उनसे कहता हूं कि राम ने रावण को मारा, इसको इंग्लिश में बोलो। और वे बिना एक मिनट भी लिए बोलते हैं "रावणा" किल्ड बाय "रामा" मुझे पता है कि आपमें से कई लोग सोच रहे होंगे कि इसमें गलत क्या है।

यह तकनीकी रूप से गलत तो है ही साथ ही हिन्दुस्तानियों की कॉपी करने की आदत का भी जबरदस्त उदाहरण है। क्योकि अंग्रेज राम या रावण नहीं बोल पाते इसलिए वो रामा और रावणा बोलेंगे तो हम भी ऐसा ही करेंगे। और ऐसा हो भी क्यों नहीं हमारे यहां ही तो डुप्लीकेट बनने का फैशन जो है। हमारे यहां हर लोकप्रिय शख्सियत का कोई न कोई डुप्लीकेट जरूर मिल जाता है। अब क्योंकि अंग्रेजी अपनी भाषा तो है नहीं इसलिए वो जैसा बोलते है वैसा ही बोलो, जैसा वो करते हैं वैसा ही करो। मैं यहां करने के बारे में ज्यादा नहीं लिखूंगा नहीं तो विषय से भटक जाउंगा।

इस तकनीकी खामी के साथ आम आदमी बोलें तो समझ में आता है, लेकिन हमारे भारतीय न्यूज चैनल भी कुछ ऐसा ही करते हैं। ए रिपोर्ट फ्रॉम "बरखा" को बोलेंगे ए न्यूज रिपोर्ट फ्रॉम "बारखा"। इसी तरह इंग्लिश न्यूज चैनल के लिए कसाब हो गया "कसब।

किसी नई भाषा को हम अपने सहूलियत के लिए सीखते हैं, न कि अपनी खुद की जुबान बिगाड़ने के लिए। नाम का उसी तरह से उच्चारण होना चाहिए जैसा कि वो है। इसलिए राम, राम हैं न कि रामा। इससे किसी को इनकार नहीं हो सकता कि इंग्लिश हमारी भाषा नहीं है, लेकिन आज के समाज में यह बहुत ही उपयोगी है। खासकर भारत जैसे बहुभाषी देश के लिए जहां हर तीन किमी पर बोली बदल जाती है वहां कोई ऐसी भाषा जरूर होनी चाहिए जो सब समझ सकें और सब बोल सकें। हिंदी ने इस रूप में काफी प्रगति की है लेकिन इंग्लिश के ग्लोबल होने और रोजगारोन्मुख होने से इसकी उपयोगिता और भी बढ़ जाती है। यह अलग बात है कि हिन्दी को भी इस रूप में प्रचारित किया जा सकता था। आप अगर फ्रांस, इटली, जर्मनी, रुस जाएं तो आपको वहां बात करने के लिए उनकी भाषा को सीखना पड़ेगा। मेरा एक दोस्त कुछ दिनों पहले फ्रांस गया था और वह बताता है कि वहां बस एक दो न्यूज चैनल इंग्लिश में है नहीं तो सारे फ्रेंच चैनल हैं। यह होता है अपनी भाषा से लगाव।

लेकिन भारत में ऐसी आशा नहीं कि जा सकती। जब यूरोप में राष्ट्रों का एकीकरण हुआ तो इसका आधार ही या तो भाषा बनी या एक जाति। राष्ट्र की परिकल्पना ही यूरोप में इसी तरह से विकसित हुई। राष्ट्र का मतलब एक जाति, एक धर्म और एक भाषा। लेकिन भारत जैसे बहुसांस्कृतिक, बहुभाषी और बहुधर्मी देश में ऐसा सोचना भी मूर्खता होगी। लेकिन कम से कम हिंदी को मिली राष्ट्रीय भाषा के दर्जे का सम्मान तो करना ही चाहिए। मेरा यह सब लिखने का यह कतई ही उद्देश्य नहीं है कि मैं इंग्लिश विरोधी हूं, इंग्लिश बोलें लेकिन हिन्दुस्तानियों की तरह। मैं हिन्दुस्तानी इसलिए भी कह रहा हूं कि दक्षिण भारतीय लोग इंग्लिश दक्षिण भारतीयों की तरह बोलें, उत्तर भारतीय, उत्तर भारतीयों की तरह न कि अमेरिकी और ब्रिटिशर्स की तरह। कम से कम जो चीज बिल्कुल ही हिन्दुस्तानी है और हिन्दुस्तानी ही उसको जानते हैं कि कैसे बोला जाए वह तो बिल्कुल भी नहीं। नहीं तो वह दिन दूर नहीं जब भारतीयों के लिए भी गांधी हो जाएंगे गैंधी जैसे कि गांगुली हो गए गैंगुली, बरखा हो गई बारखा, कसाब हो गया कसब, द्रविड गए द्राविड। अब आप कहिए..............