शनिवार, 28 जून 2008

हंगामा है क्यों बरपा........

जम्मू कश्मीर में श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड को हस्तांतरित जमीन को लेकर उपजा विवाद आखिरकार गुलाम नबी सरकार की गले की फांस बन ही गया। कांग्रेस की समर्थक पार्टी पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी ने सरकार से समर्थन वापसी की घोषणा कर दी। हालांकि सरकार के वैसे भी कुछ ही महीने बचे थे, लेकिन जिस मुद्दे पर समर्थन वापसी की घोषणा हुई है वह न तो जम्मू-कश्मीर के लिए हित में है और न ही देश हित में। क्योंकि ऐसे कदमों से समाज बंटेगा ही। लोगों में सांप्रदायिक भावना भड़काकर राजनीतिक लाभ लेने से आने वाले समय में जम्मू कश्मीर को और भी बुरे दिन देखने को मिल सकते हैं।

मामला यह है कि श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड को जंगल की भूमि प्रदान की गई, जिसका प्रयोग अमरनाथ यात्रा के समय बेस कैंप के रुप में होना था। बोर्ड को वहां कोई स्थाई निर्माण की इजाजत नहीं थी। इस मामले का विरोध इस आधार पर शुरू हुआ कि इससे राज्य का जनांकिकीय संतुलन (Demographic Balance) बिगड़ जाएगा। इस विरोध का दूसरा आधार पर्यावरणीय है।

सबसे पहली बात तो ये कि इस अस्थाई बेस कैंप से जम्मू कश्मीर के जनांकीकिय संतुलन पर कैसे प्रभाव पड़ेगा। और अगर पड़ता भी हो तो क्या जम्मू-कश्मीर सिर्फ मुसलमानों का है। एक तरफ तो लाखों की संख्या में कश्मीरी हिन्दु राज्य के बाहर रहने को विवश हैं, दूसरी तरफ वहां की कौम का यह रवैया। तो किस मुंह से सरकार या वहां के लीडरान कहते हैं कि कश्मीरी हिन्दु कश्मीर आकर बसें। जब एक अस्थाई बेस कैंप पर इतना बवाल होगा तो कैसे वे लोग हिन्दुओं के स्थाई निवास को सहन कर पाएंगे।

इस मामले में जो सबसे बुरी बात हुई है वह है इस प्रकार के आंदोलनों को राजनीतिक समर्थन। ऐसा करके ये पार्टियां दो समुदायों के बीच सांप्रदायिक दूरी को बढा ही रहे हैं, जो कतई देश हित में नहीं है। किसी मुद्दे पर आम लोग आम व्यवहार करते ही हैं, लेकिन समाज के प्रबुद्ध वर्ग की यह जिम्मेवारी बनती है कि वे हमेशा सही बात कहते रहें, उससे परहेज न करें। अपने क्षुद्र राजनीतिक फायदे के लिए इस प्रकार का व्यवहार घातक है।

मैने अभी हाल ही में एक किताब पढ़ी `India : After Ayodhya' । इस किताब की कुछ बातों ने मुझे प्रभावित किया। इसमें लेखक ने लिखा है कि आज तक के इतिहास में अगर एक जाति ने दूसरी जाति पर जुल्म ढाया है तो बाद की पीढ़ि ने इसके लिए दूसरी जाति से माफी मांगी है। एकमात्र मुसलमान ही ऐसी जाति है जो अपने किए पर कभी शर्मिंदा नहीं हुई। जर्मन जाति ने यहूदियों पर जुल्म ढाया, ब्रिटन ने रेड इंडियन्स पर जुल्म ढाया और अमेरिका से लगभग उन्हें समाप्त ही कर दिया। लेकिन इस सब जातियों की बाद की पीढियों ने अपने पूर्वजों के इस कृत्य के लिए माफी मांगी। हालांकि इसके लिए आज की पीढि बिल्कुल भी जिम्मेवार नहीं थी।

अब मुसलमानों पर आइए। मध्यकाल में जब इस धर्म का प्रसार हो रहा था तो मुसलमान जाति ने कई जातियों पर जुल्म ढाए और उन्हे मुसलमान बनाया। इस बात से किसी को भी आपत्ति नहीं होनी चाहिए क्योंकि इस्लाम का प्रसार ही खून खराबे से हुआ है, यही जेहाद है अर्थात धर्म युद्ध। भारत में भी मुसलमान आए और बड़े पैमाने पर नरसंहार हुए। आप कह सकते हैं कि ये सभी युद्ध राजनीतिक युद्ध थे। मैं भी इतिहास का विद्यार्थी होने के नाते यह जानता हूं कि ये युद्ध राजनीतिक थे। लेकिन कई ऐसे आक्रमणकारी भी आए जिनका उद्देश्य सिर्फ लूटपाट करना ही था। चाहे वह महमूद गजनवी हो या फिर तैमूर। लेकिन इसके लिए भी मुसलमान समाज ने कभी भी माफी नहीं मांगी।

आप सोंच रहे होंगे कि मैं एक सांप्रदायिक व्यक्ति हूं। लेकिन यकीन मानिए, ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। जब अमेरिका ने अफगानिस्तान पर हमला किया था तो मैंने खुद अपने कॉलेज में `War, Terrorism and Jihad' पर एक सेमिनार करवाया था। उस वक्त दिल्ली में वार तथा जिहाद को लेकर पोस्टरबाजी करने पर दिल्ली पुलिस की तरफ से रोक लगी हुई थी, लेकिन उस समय भी हमने यह कर दिखाया था। कुछ पुलिस वालों से तू-तू, मैं-मैं भी हुई। मैं यह सब सिर्फ इसलिए लिख रहा हूं कि आप इस पर एक बार सोंचे और अपनी बात कहें। मुस्लिम समाज कि इस असहनशीलता का विरोध करना ही चाहिए। जिस प्रकार हिन्दुओं को समझने की जरूरत है कि मुसलमान भी इस देश के निवासी हैं हमारे भाई हैं, यह बात मुसलमानों को भी समझनी पड़ेगी कि हिन्दु उनके भाई हैं। अगर वे इस प्रकार की असहनशीलता दिखाएंगे तो देश का भला कतई नहीं होगा।

शनिवार, 21 जून 2008

फर्क तो पड़ता है.....

मैं पिछले कई महीनों से कुछ चीजों को देखकर बहुत परेशान हो जाता हूं, इसलिए सोचा कि आपलोगों से शेयर कर लूं। एक तो शाम को जब मैं कनाट प्लेस से आफिस से घर जाता हूं तो एक तो सबवे में कई कबाड़ी लोग बैठे रहते हैं और वे सब कोकीन लेते रहते हैं। थोड़ा और आगे बढ़े तो पंचकुईंयां रोड के पास जो मेट्रो लाइन है वहां दर्जनों लोग बैठे रहते हैं और सभी सामूहिक रूप से कोकीन लेते रहते हैं, जिसमें कई महिलाएं भी शामिल होती हैं।

अब ये तो माना जा नहीं सकता कि पुलिस को या मीडिया को इसकी खबर नहीं है। लेकिन इसके बावजूद खुल्लमखुल्ला लोग कोकीन लेते रहते हैं। लेकिन मैं यहां कोई कानूनी मामला नहीं उठाना चाहता। मैं इसमें मानवीय पहलू को उठाना चाहता हूं। ये लोग जो ये सब करते रहते हैं समाज के बिल्कुल निचले तबके से आते हैं। छोटा मोटा काम करते हैं और इतना भी नहीं कमा पाते कि अपने परिवार के लिए दो टाइम के खाने का बंदोबस्त कर पाएं। लेकिन फिर भी नशा करने के लिए इनके पास पैसा आ जाता है। आप कह सकते हैं कि इन लोगों को जीने का सलीका ही नहीं आता। इसलिए ये लोग हमेशा गरीब ही रह जाएंगे।

लेकिन आप सोचिए वह आदमी जिसने दिन भर कमरतोड़ मेहनत की है और जिसे भर पेट खाना भी न मिले और अगले दिन फिर उसे काम करना हो तो वो क्या करे। शायद बो अगर नशा न करे तो शायद वह सो भी नहीं पाएगा, तो वह काम क्या करेगा खाक। आप ये मत सोचिएगा कि मैं इनके नशा करने को सही कह रहा हूं बस देखने का नजरिया बता रहा हूं। इससे शायद इन मजबूर लोगों को देखकर आपको घृणा नहीं संवेदना होगी और आप यह नहीं कहेंगे क्या फर्क पड़ता है। वास्तव में मेरा मानना है कि समाज के लिए सबसे खतरनाक यही लोग होते हैं, जो कहते हैं क्या फर्क पड़ता है, सब चलता है, ऐसे लोग वो होते हैं जिन्हें सही गलत के बारे में पता तो होता है लेकिन उसे वह स्वीकार नहीं करना चाहते, क्योंकि इससे उनको खुद अपने जीने का सलीका ठीक करना पड़ेगा। खैर इसको छोड़िए....।

वास्तव में इस तबके के लोगों की परेशानी यह है कि नगरीकरण के दौर में काम की तलाश में ये लोग शहर आ गए। गांव में काम है नहीं। लेकिन ये यहां आकर अंतहीन दुख में ही फंस जाते हैं। मेरी एक आदत है कि मैं गरीब लोगों से बात करने की कोशिश करता हूं। मैं एक बार एक रिक्शे वाले से बात कर रहा था कि वह कितना कमा लेता है। इसका भी हिसाब सुन ही लीजिए। वह दिन में औसतन 100 रुपये कमाता है, जिसमें से 30 रुपये रिक्शे का किराया। बचे 70 रुपये इसमें से कमरे का किराया प्रतिदिन के हिसाब से 20 रुपये। बचे 50 जिसमें से दो टाइम का खाना। कितना भी सस्ता खाना लगाएं तो दो टाइम का खाना 30 रुपये से कम नहीं होगा। बचे 20 रुपये। इस बीस रुपये में चलाना होता है उसे अपना पूरा परिवार। उसमें भी अगर वो एक दिन भी बीमार पड़ गया तो सोचिए क्या होता होगा। इनके लिए तो बीमार पड़ना भी अपराध है। फिर आप कहेंगे कि लोग अपने बच्चों को कैसे काम पर भेज देते हैं। इनको स्कूल क्यों नहीं भेजते। सरकार ने जब काम के बदले अनाज तथा स्कूलों में मिड डे मील स्कीम शुरू किया तो कई लोगों ने इसका बहुत विरोध किया। अभी भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो इसकी आलोचना करने से बाज नहीं आते और कहते हैं कि बच्चे खाना लेकर चले जाते हैं। लेकिन सरकार बखूबी जानती है कि इसका क्या फायदा है। विवेकानंद ने कहा था कि भूखे आदमी से धर्म तथा समाज सुधार की बात करना अपराध है। हमलोग बस यही आशा कर सकते हैं सरकार की ये स्कीमें सफल हों।

मैं जब कालेज में था तो मेरी एक प्रोफेसर थीं शहाना मैडम। वास्तव में उन्होंने मेरी जिंदगी को बहुत ज्यादा प्रभावित किया। वो एक टूटे हुए स्कूटर पर आतीं थीं और मुझे अब भी पूरा विश्वास है कि उनका स्कूटर नहीं छूटा होगा। वो कहा करतीं थी की सुजीत आदमी को कितने पैसे की जरूरत होती है, मेरे तो पैसे बच जाते हैं। खैर, उनके बारे में बताना शुरू करुंगा तो मुद्दा कहीं छूट जाएगा। उनका अपना एक एनजीओ है `परिवर्तन'। मैंने भी अपने कॉलेज लाइफ में इसके लिए काम किया था। इस एनजीओ के ऐसे तो बहुत काम थे लेकिन एक काम यह भी था कि छोटे-मोटे अपराध के चलते जुर्माना न भर पाने के कारण कई लोग जो जेल में बंद होते थे उनको बाहर निकालना। कई बार मैं भी उनके साथ तिहाड़ जैल गया था और सजा भुगत रहे आदमी के परिवार से भी मिला। सच बता रहा हूं अगर जज को उस परिवार को दिखा दिया जाए तो शायद वह भी सजा देने से पहले हजार बार सोंचेगा। लेकिन किसी भी मजबूर इंसान की मदद कर जो सुकून मिलता है वो मुझे कॉलेज से निकलने के बाद आज तक नहीं मिला।

जिसका पेट भूखा है उससे अच्छे बुरे की बात करना भी अपराध है। कहा भी जाता है कि अच्छा और बुरा समाज के सबसे ऊपर और सबसे नीचे तबके के लिए नहीं बना। क्योंकि सबसे नीचे तबके के लोग इसकी परवाह नहीं करते और सबसे ऊपर तबके के लोगों को अच्छे बुरे के लफड़े में पड़ने की जरूरत नहीं पड़ती। इसलिए नशा और अपराध की सबसे ज्यादा घटना निचले और ऊपरी तबके के लोगों के द्वारा ही अंजाम दिया जाता है। क्या अच्छा है, क्या बुरा है, यह सब चीजें मध्यमवर्ग के लिए है और शायद यही वह चीज है जिसपर वो गर्व करके अपने आपको तसल्ली देते हैं।

बुधवार, 18 जून 2008

आईपीएल के सीजन में फुटबॉल

भारत जैसे देश में जहां खेल का मतलब क्रिकेट, क्रिकेट और क्रिकेट तक ही सिमट कर रह जाता है ऐसे में अन्य खेलों की दुर्दशा पर अफसोस जाहिर करने के अलावा कुछ नहीं किया जा सकता। हाल ही में संतोष ट्राफी का ही उदाहरण ले लीजिए। पहले तो इस आयोजन को करने में ही परेशानी हो रही थी। जैसे-तैसे इंतजाम के बाद इसका आयोजन तो हुआ लेकिन खिलाड़ियों की दुर्दशा के बारे में अगर आप जानेंगे तो आप स्वतः ही समझ जाएंगे कि उनके लिए खेलना किसी अग्निपरीक्षा से कम नहीं है।

इस आयोजन के लिए खिलाड़ियों को जो दैनिक भत्ता आल इंडिया फेडरेशन की तरफ से दिया गया वह महज 400 रुपये प्रतिदिन था। जिसमें खाना और रहना सभी शामिल था। इसके ऊपर 100 रुपये का पॉकेट मनी स्टेट एसोसिएशन की तरफ से दिया गया।

अब इस आधार पर देखिए कुछ टीमों की स्थिति। कर्नाटक की टीम जो कि जम्मू-कश्मीर में डल झील के पास सलीम गेस्ट हाउस में रुकी, उसका किराया 1000 रुपये प्रतिदिन था। एक रुम में चार-चार खिलाड़ी रुके जिसमें टीम के हर खिलाड़ी का 250 रुपया रहने में ही गया। उसके बाद खाना और अन्य जरुरतें अलग। इसके साथ-साथ अगर लांड्री का प्रयोग करना हो तो उसके लिए अलग से भुगतान करना पड़ता था। जाहिर है खिलाड़ियों ने खुद ही अपने कपड़े धोने का विकल्प चुना।

अब केरल की टीम का दुखड़ा सुनिए। केरल की टीम ताज होटल में रुकी। वहां किराये के अलावा सिर्फ लंच ही मुफ्त मिलता था। इसके अलावा नाश्ता और डिनर अपने पैसे से करने की खिलाड़ी सोंचने की स्थिति में ही नहीं थे। क्योंकि ताज का डिनर 400 रुपये प्रतिदिन के पैसे के हिसाब वाले व्यक्ति के लिए सोंचना भी जुर्म है।

अब इन खिलाड़ियों के सफर के बारे में भी जान ही लीजिए। केरल और कर्नाटक की टीम को जम्मू पहुंचने में ही तीन दिन लग गए। आप समझ सकते हैं दक्षिण भारत के एक छोर से उत्तर भारत के दूसरे छोर तक ट्रेन से जाने में कितना समय लगेगा। तीन दिन में जम्मू पहुंचने के बाद फिर उन्हें 12 घंटे का बस का सफर करना पड़ा। वहां से भी उन्हें हवाई सेवा मुहैया नहीं करवाई गई। जबकि फेडरेशन अगर चाहता तो इससे बेहतर बंदोबस्त किया जा सकता था।

यह हालत तो तब है जब एक राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिता के लिए ये खिलाड़ी शिरकत करने जा रहे थे। सोंचिए इनको बाकी दिनों में कैसी सुविधा दी जाती होगी। यह हालत सिर्फ फुटबॉल की ही नहीं है, यह हालत हॉकी समेत सभी खेलों की है। ऐसी स्थिति में भी किसी प्रतियोगिता के दौरान हमें अपनी टीम से विश्व स्तर का प्रदर्शन चाहिए। उस वक्त हमें यह याद नहीं आता कि बिना किसी सुविधा के ये खिलाड़ी सिर्फ जज्बातों की ताकत से ही हर तरह से संपन्न विदेशी टीमों से लड़ते हैं, और जब लड़ते हुए परास्त होते हैं तो पूरा देश उनकी आलोचना में खड़ा हो जाता है। कोई यह नहीं सोंचता कि आखिर उनकी यह हालत क्यों है।

पिछले दिनों हॉकी को लेकर बड़ा बवाल हो गया। हॉकी फेडरेशन के उस समय के अध्यक्ष केपीएस गिल को भी हटना पड़ा। उनको हटना ही चाहिए था। मैं सिर्फ इतना कहना चाहता हूं कि यह समस्या का निदान नहीं है। हमें अपने खिलाड़ियों के लिए बेहतर व्यवस्था करनी होगी। बेहतर कोचिंग फैसीलिटी, बेहतर इंतजाम तथा बेहतर भत्ता। ताकि किसी खिलाड़ी को अपना ओलंपिक मैडल न बेचना पड़े।

पिछले दिनों प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा कि हॉकी क्रिकेट से अधिक महत्वपूर्ण है। लेकिन यह कह भर देने से नहीं होता। बेहतरी के लिए कदम उठाना होगा। क्रिकेट ने जो मुकाम हासिल किया है वो उसने अपने प्रदर्शन की बदौलत हासिल किया है। एक आटोनोमस बाडी के रूप में बीसीसीआई ने इतना प्रोफेशनलिज्म अपने काम में लाया, उसी का नतीजा है कि आज क्रिकेट ने यह मुकाम हासिल किया है।

अगर देश में अन्य खेलों को भी बढ़ावा देना है तो इसके लिए बयान की बजाय सरकार को चाहिए कि वह अन्य खेलों की नीतियों में व्यापक सुधार करे। अन्य खेल फेडरेशन के कामकाज में ट्रांसपैरेन्सी लाए। ऐसा न हो कि एक ही व्यक्ति किसी फेडरेशन का अध्यक्ष वर्षों से बना रहे।

इस वक्त मुझे कुछ लाइनें याद आ रही हैं जो मेरे कॉलेज की एक लड़की ने लिखा था -

रख तू राह पर दो-चार ही कदम मगर जरा तबीयत से,
कि मंजिल खुद-ब-खुद तेरे पास चलकर आएगी।
ऐ हालात का रोना रोने वालों,
मत भूल कि तेरी तदबीर ही तेरी तकदीर बदल पाएगी।।

सोमवार, 16 जून 2008

वाह री मीडिया



जैसा कि आप देख रहे हैं। इस नरकंकाल को देखकर आप स्वतः ही अनुमान लगा सकते हैं कि यह कितना बड़ा कंकाल होगा। खबर के अनुसार दक्षिण भारत में सेना क्षेत्र में यह कंकाल मिला है। कल एक टीवी चैनल ने इसको बहुत देर तक दिखाया भी और कहा की यह महाभारत में वर्णित भीम का पुत्र घटोत्कच्छ का कंकाल है।



मैं आपका ध्यान कुछ चीजों की ओर आकर्षित करना चाहता हूं-

1. यह इमेज `वर्थ 1000' से उठाया गया है। इस साइट पर अलग अलग तरह के डिजिटल फोटो को अप इडिट करके अपलोड कर सकते हैं। इस इमेज को वहीं से उठाया गया है।


2. जैसा की खबर में कहा गया है कि इसकी खोज नेशनल ज्योग्राफी की टीम ने आर्मी एरिया में किया है लेकिन अब तक न तो आर्मी ने और न ही नेशनल ज्योग्राफी की टीम ने कुछ आधिकारिक बयान दिया है।

3. मानव आकृति के हिसाब से यह मानने योग्य है ही नहीं। ऐसा इसलिए कि मानव के इतना अधिक समझदार जीव बनने के पीछे एक प्रमुख कारण उसका आकार भी है। बड़े आकार के जीवों की मस्तिष्क क्षमता इतनी बढ़ ही नहीं सकती जितनी की मानव की है।




देखिए कुछ डिजिटल फोटो का नजारा-


1.




एक आंख वाला इंसान, देखा है कभी आपने। अगर टीवी चैनल इसी को एक न्यूज बनाकर आपको कल दिखा दें तो हैरान मत होइएगा।
2.



एक नजारा यह भी देखिए। छोटे से गोलाकार आकृति में बच्चा। कल को इसे लिलिपुट से मिला अवशेष बताया जा सकता है।

मीडीया पर सवालः

सवाल यह उठता है कि आखिर मीडिया किस ओर जा रहा है। टीआरपी रेटिंग के पीछे दौड़ता मीडिया शायद भूल गया है कि उसकी समाज के प्रति भी कुछ जिम्मेवारी है। न्यूज के नाम पर लोगों के सामने अंधविश्वास, जादू टोना, मानवता को छिन्न-भिन्न करने वाले ऐसी खबरों को दिखाकर मीडिया क्या दिखाना चाहता है।

कब तक मीडिया टीआरपी के लिए लोगों को बरगलाती रहेगी। अपना एक स्टैडर्ड तो सेट करना ही चाहिए। अगर नहीं तो ऐसा कहने का कोई हक नहीं कि मीडिया समाज ऐसा बुद्धिजीवी समाज है जो समाज को आइना दिखाता है। मुझे तो लगता है कि आज की मीडिया आइना नहीं अपने मतलब का चश्मा लोगों को पहनाता है। यह भारतीय संस्कृति रही है कि हम बहुत अधिक विश्वास करते हैं, लेकिन जब विश्वास टूटता है तो फिर किसी पर विश्वास नहीं करते। मीडिया को ध्यान रखना चाहिए कि कहीं लोगों का विश्वास ही न उठ जाए। इसलिए मीडिया भालू आया.....भालू आया...करना छोड़े।

शनिवार, 14 जून 2008

रानी को नहीं पता कहां है राजघाट

हाय रे बॉलीवुड, पैसे की चमक-दमक और पश्चिमी सभ्यता के चकाचौंध में हमारे बॉलीबुड के सितारे इतनी खो गए हैं कि उन्हें यह तक पता नहीं कि कहां है बापू का समाधि स्थल राजघाट। जी हा शाहरुख खान की पांचवीं पास में आए सफलतम अभिनेत्रियों में मानी जाने वाली रानी मुखर्जी से जब पूछा गया कि राजघाट कहां है तो वह बगलें झांकतीं नजर आईं। उनके साथ आए करण जौहर ने तो कहा कि उन्होंने मधुर भडारकर की फिल्म में देखा था, शायद यह नई दिल्ली में है। आपको लग सकता है कि यह बहुत ही साधारण बात है। आप सोंच रहे होंगे कि हो सकता है कि जेनरल नॉलेज कमजोर हो। लेकिन अगर ऐसा है तो उन्हे यह भी पता नहीं होना चाहिए कि एफिल टॉवर कहां है। लेकिन ऐसा नहीं होगा।

आज फिल्मी दुनिया की हस्तियों को अपने देश से अधिक विदेशी चीजें पसंद है। फेवरेट एक्टर पूछिए तो कोई विदेशी कलाकार का नाम सुनने को मिलेगा, फेवरेट शूटिंग डिस्टेनेशन भी विदेश ही, फेवरेट रायटर भी विदेशी ही, चाहे भले ही वे यह नहीं जानते हों कि प्रेमचंद कौन हैं। एक बार जब मैं कॉलेज में था तो पाकिस्तान टूर का प्लान कॉलेज की तरफ से बना। हमलोग बड़े खुश थे। हमारे एक प्रोफेसर ने क्लास में कहा कि आपलोगों में से कितनों ने राजगीर देखा है। मुशिकल से 4-5 हाथ उठे होंगे। उन्होंने कहा कि पहले अपने देश को जानों। अब समझ में आ रहा है कि उनहोंने कितना सही कहा।

इसी प्रोग्राम में जब रानी से हिन्दी में पूछा गया कि 47 को क्या कहते हैं तो उन्हें 70 नजर आ रहा था। जब देश के राष्ट्रपिता के बारे में ही जिसको जानकारी नहीं हो तो उससे हिन्दी के बारे में आशा करना शायद बेवकूफी होगी। एक बार बॉलीवुड के महानायक अमिताभ बच्चन से जब पूछा गया कि आप अपने बेटे को सफल होने के लिए क्या सलाह देना चाहेंगे तो उन्होंने कहा था कि वे जब भी बोलें हिन्दी में बोलें। क्योंकि हमारे अधिकतर दर्शक हिन्दीभाषी ही हैं। इससे दर्शक जुड़ाव महसूस करते हैं। आज बॉलीवुड के अधिकतर सितारे इंग्लिश में ही बात करते हैं चाहे भले ही उनसे हिन्दी में सवाल पूछा जाए।

अंग्रेजियत की चकाचौंध में खोया हमारा बॉलीवुड अगर ऐसी फिल्में बनाता है जिसका समाज से कोई सारोकार नहीं होता तो क्या गलत है? यह चर्चा अब पुरानी हो चुकी है कि अब फिल्मों और टीवी पर भी आम आदमी गायब हो गया है। इसलिए मैं इसपर कुछ ज्यादा नहीं लिखूंगा। वैसे भी आज अंग्रेजीदार मॉल संस्कृति में तो आम आदमी घुटन महसूस करता है। उसके लिए तो वही गांव के चौक पर पान की दूकान, सस्ती सी सुपाड़ी और चमकीले भड़कीले कपड़े। उसी में हैं वे खुश। लेकिन बॉलीवुड को अपनी जिम्मेवारी समझनी होगी। समाज की बेहतरी के लिए बॉलीवुड की भी कुछ जिम्मेवारी बनती है। लेकिन रानी मुखर्जी और करन जौहर जैसे लोगों से मुझे कोई आशा नहीं है।

पाश्चात्य जगत में जब आधुनिक युग का प्रवेश हुआ तो उससे पहले अंधकार युग था। उस समय का यूरोपीय समाज शायद इतना रुढिवादी था जैसा भारतीय समाज भी कभी नहीं था। वहां आधुनिकता की बयार बही। यह बयार ग्रीक फिलॉसोफी में छिपी हुई थी। उन्होंने उसी को अपनाया। ग्रीक साहित्य में वो सबकुछ था जो एक समाज को आधुनिक बनाने के लिए आवश्यक हैं। स्वतंत्रता, समानता, साइंटिफिक टेम्परामेंट। यूरोपीय समाज ने उसको अपनाया। उन्होंने इसके लिए किसी दूसरे का अंधानुकरण नहीं किया। लेकिन हम कुछ और ही कर रहे हैं। ऐसा नहीं है कि हमारी सभ्यता में ये सभी तत्व नहीं है। लेकिन हमने उसे अपनाया ही नहीं।