मैं पिछले कई महीनों से कुछ चीजों को देखकर बहुत परेशान हो जाता हूं, इसलिए सोचा कि आपलोगों से शेयर कर लूं। एक तो शाम को जब मैं कनाट प्लेस से आफिस से घर जाता हूं तो एक तो सबवे में कई कबाड़ी लोग बैठे रहते हैं और वे सब कोकीन लेते रहते हैं। थोड़ा और आगे बढ़े तो पंचकुईंयां रोड के पास जो मेट्रो लाइन है वहां दर्जनों लोग बैठे रहते हैं और सभी सामूहिक रूप से कोकीन लेते रहते हैं, जिसमें कई महिलाएं भी शामिल होती हैं।
अब ये तो माना जा नहीं सकता कि पुलिस को या मीडिया को इसकी खबर नहीं है। लेकिन इसके बावजूद खुल्लमखुल्ला लोग कोकीन लेते रहते हैं। लेकिन मैं यहां कोई कानूनी मामला नहीं उठाना चाहता। मैं इसमें मानवीय पहलू को उठाना चाहता हूं। ये लोग जो ये सब करते रहते हैं समाज के बिल्कुल निचले तबके से आते हैं। छोटा मोटा काम करते हैं और इतना भी नहीं कमा पाते कि अपने परिवार के लिए दो टाइम के खाने का बंदोबस्त कर पाएं। लेकिन फिर भी नशा करने के लिए इनके पास पैसा आ जाता है। आप कह सकते हैं कि इन लोगों को जीने का सलीका ही नहीं आता। इसलिए ये लोग हमेशा गरीब ही रह जाएंगे।
लेकिन आप सोचिए वह आदमी जिसने दिन भर कमरतोड़ मेहनत की है और जिसे भर पेट खाना भी न मिले और अगले दिन फिर उसे काम करना हो तो वो क्या करे। शायद बो अगर नशा न करे तो शायद वह सो भी नहीं पाएगा, तो वह काम क्या करेगा खाक। आप ये मत सोचिएगा कि मैं इनके नशा करने को सही कह रहा हूं बस देखने का नजरिया बता रहा हूं। इससे शायद इन मजबूर लोगों को देखकर आपको घृणा नहीं संवेदना होगी और आप यह नहीं कहेंगे क्या फर्क पड़ता है। वास्तव में मेरा मानना है कि समाज के लिए सबसे खतरनाक यही लोग होते हैं, जो कहते हैं क्या फर्क पड़ता है, सब चलता है, ऐसे लोग वो होते हैं जिन्हें सही गलत के बारे में पता तो होता है लेकिन उसे वह स्वीकार नहीं करना चाहते, क्योंकि इससे उनको खुद अपने जीने का सलीका ठीक करना पड़ेगा। खैर इसको छोड़िए....।
वास्तव में इस तबके के लोगों की परेशानी यह है कि नगरीकरण के दौर में काम की तलाश में ये लोग शहर आ गए। गांव में काम है नहीं। लेकिन ये यहां आकर अंतहीन दुख में ही फंस जाते हैं। मेरी एक आदत है कि मैं गरीब लोगों से बात करने की कोशिश करता हूं। मैं एक बार एक रिक्शे वाले से बात कर रहा था कि वह कितना कमा लेता है। इसका भी हिसाब सुन ही लीजिए। वह दिन में औसतन 100 रुपये कमाता है, जिसमें से 30 रुपये रिक्शे का किराया। बचे 70 रुपये इसमें से कमरे का किराया प्रतिदिन के हिसाब से 20 रुपये। बचे 50 जिसमें से दो टाइम का खाना। कितना भी सस्ता खाना लगाएं तो दो टाइम का खाना 30 रुपये से कम नहीं होगा। बचे 20 रुपये। इस बीस रुपये में चलाना होता है उसे अपना पूरा परिवार। उसमें भी अगर वो एक दिन भी बीमार पड़ गया तो सोचिए क्या होता होगा। इनके लिए तो बीमार पड़ना भी अपराध है। फिर आप कहेंगे कि लोग अपने बच्चों को कैसे काम पर भेज देते हैं। इनको स्कूल क्यों नहीं भेजते। सरकार ने जब काम के बदले अनाज तथा स्कूलों में मिड डे मील स्कीम शुरू किया तो कई लोगों ने इसका बहुत विरोध किया। अभी भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो इसकी आलोचना करने से बाज नहीं आते और कहते हैं कि बच्चे खाना लेकर चले जाते हैं। लेकिन सरकार बखूबी जानती है कि इसका क्या फायदा है। विवेकानंद ने कहा था कि भूखे आदमी से धर्म तथा समाज सुधार की बात करना अपराध है। हमलोग बस यही आशा कर सकते हैं सरकार की ये स्कीमें सफल हों।
मैं जब कालेज में था तो मेरी एक प्रोफेसर थीं शहाना मैडम। वास्तव में उन्होंने मेरी जिंदगी को बहुत ज्यादा प्रभावित किया। वो एक टूटे हुए स्कूटर पर आतीं थीं और मुझे अब भी पूरा विश्वास है कि उनका स्कूटर नहीं छूटा होगा। वो कहा करतीं थी की सुजीत आदमी को कितने पैसे की जरूरत होती है, मेरे तो पैसे बच जाते हैं। खैर, उनके बारे में बताना शुरू करुंगा तो मुद्दा कहीं छूट जाएगा। उनका अपना एक एनजीओ है `परिवर्तन'। मैंने भी अपने कॉलेज लाइफ में इसके लिए काम किया था। इस एनजीओ के ऐसे तो बहुत काम थे लेकिन एक काम यह भी था कि छोटे-मोटे अपराध के चलते जुर्माना न भर पाने के कारण कई लोग जो जेल में बंद होते थे उनको बाहर निकालना। कई बार मैं भी उनके साथ तिहाड़ जैल गया था और सजा भुगत रहे आदमी के परिवार से भी मिला। सच बता रहा हूं अगर जज को उस परिवार को दिखा दिया जाए तो शायद वह भी सजा देने से पहले हजार बार सोंचेगा। लेकिन किसी भी मजबूर इंसान की मदद कर जो सुकून मिलता है वो मुझे कॉलेज से निकलने के बाद आज तक नहीं मिला।
जिसका पेट भूखा है उससे अच्छे बुरे की बात करना भी अपराध है। कहा भी जाता है कि अच्छा और बुरा समाज के सबसे ऊपर और सबसे नीचे तबके के लिए नहीं बना। क्योंकि सबसे नीचे तबके के लोग इसकी परवाह नहीं करते और सबसे ऊपर तबके के लोगों को अच्छे बुरे के लफड़े में पड़ने की जरूरत नहीं पड़ती। इसलिए नशा और अपराध की सबसे ज्यादा घटना निचले और ऊपरी तबके के लोगों के द्वारा ही अंजाम दिया जाता है। क्या अच्छा है, क्या बुरा है, यह सब चीजें मध्यमवर्ग के लिए है और शायद यही वह चीज है जिसपर वो गर्व करके अपने आपको तसल्ली देते हैं।
ये कौन है जो पत्थर फेंक रहा, कौन है जो आग लगा रहा है
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ये कौन है जो पत्थर फेंक रहा है,
इंसानियत को लहूलुहान कर रहा है।
ये कौन है जो आग लगा रहा है।
दुकानों ही नहीं भाईचारे को भी जला रहा है।
क्यों सड़कों पर बिखरा...
4 वर्ष पहले
5 टिप्पणियां:
Vivekananda ke pitah aamir the, ek na ek Admi unke yahaan pada hi rehta tha. Vivekananda ne pitaji se shikayat ki ke yeh muftkhor yahaan pade rehte hain aur sharab bhi pettei hain aap inhe paisa na dein. Unke pitaji bole, Jab tum samjhoge ki duniya kitni kathor hai tab tum inka dard samjhoge.
Baad me Vivekananda Sadhu ban kar Desh Ghoome tab is baat ka ehsaas hua.
Agar hum in logon ko nashe ki gard se nikalna chahte hain to pehle inke hatoon ke liye kaam ka intazaam karna padega tabhi is samasya ka samadhan ho sakta hai.
Is ke liye NGO's help kar sakte hain. Lekin kya aap jante hain NGO's kaun chalata hai? Kuch Jage huye ammer log.
Life ke teen star hote hain. Ucch Varga: Jiske paas sab kuch hai, unme se koi jaagta hai or NGO's ka Gathan kar inki Sahayta karta hai.
Doosra Varga hai Madhya Varga: Yeh apni roti se kuch zyaada kamata hai. Lekin Ucch tak pahunchne ki Chaahat or Neeche gir Jaane ke dar se Sari Zindgi Naukri mein nikal deta hai. Iska jaagna ya na jaagna koi matlab nahin rakhta. Kyuiki ise ek virus ne kaat liya hai ki "Time nahin hai".
Nichla star: Isme do tarah ke log hain ek Rikhewale, Mazdoor jo Jaantod kaam ke baad roti kamate hain, zindagi ki laadai lad rahe hain, Dusre; jo zindagi ki laddai har chuke hain Charsi, Afeemchi, inka zinda rehne ka ek hi maksad hai Charas pena. Jab tak hum inhen aasha nahin dete iska koi matlab nahin.
Great Sujeet, I appreciate your concern for such people and the problem. Being a journalist, you too have some duty to bring light to such problem and you are doing exactly the same thing. I salute your Zeal and Jajbat. Umanath Singh
सोचना दिमाग के लिए अच्छा है और सोच को क्रियान्वित करना समाज के लिए.....पर सोच अगर क्रांति बन जाए तो सभ्यता बदल जाती है....लेकिन..........कुछ समझे ..नहीं....अच्छा है क्योंक हम भी नहीं समझे.....
धन्यवाद
its a nice n really a highly recommendable thought!aksar aisa hota hai ke hum ye sab roz dekhte hain aur thodi der tak yeh hamare dimag ko asar bhi karta hai magar kuch der baad sab normal ho jaata hai!!
rozmarrah ki zindagi me hum kitni hi baar subwayz se guzarte hain aur garibon ko aafim khate dekhte hain magar hum ise apne kaam se zyaada ahmiyat nahi dete!!
magar yeh bhi zindagi ka ek pehlu hai jab hum sirf gaariboon k lie hamesha bura kehte hain aur unhe dhikkarte hain!!aur phir kahin dil me hamen un pur taras bhi aata hai k wo gareeb hain!!
hum agar kuch acha bhi sochen in logon k baare me tab bhi innhe koi farak nai padta!!
ek baar maine apne saare purane kapde ikatthe kie aur mujhe naya shauk aaya k mai unhe gaaribon me baantun. us din shaam ko mai apne papa k saath roadside beggers ko apne kapde dene k liye nikli! aur usme se maine ek shirt aur ek skirt apne samne wale ghar me lage majdoor ki beti ko de die aur ek pair maine hamare ghar k paas waali red light begger ki ek beti ko de diye!!
u know what wo majdoor ki ladki ne wo kapdhe agle din pehne the aur red light waali ne nai!!
aur jab maine usse pucha she said hum log haalat se nai apne man se bheek mangte hain aur agar hum acche kapdhe pehnege to hum bheek nai maang payenge!! It was really shocking to me!!aur tab se maine bheek dena bhi band kar dia!!!
aur ab mujhe lagta hai mai bhikharion pur taras kabhi khaungi hi nahi!! is ghtna ne meri thinking badal di hai aur mai ab unke baare me accha nai sochti!!!
Javed Akhtar ki ek kavita hai "aye Maa Teresa"... http://www.javedakhtar.com/tarkash/mother.htm
Yahan sawal yahi hai ki
"aysi baatein
main tujhse kis muh se poochhu,
poochhunga to
mujhpar bhi ye zimmevari aa jaayegi,
jis se main bachta aaya hoon."
har koi is zimmevari se bachta aaya hai. Aur sahi hai ki in sab baaton ke liye hamare paas "time nahin hai". Hum 'grahastho' ka man na hai ki hum is samaj mein rehkar is samaj ke niyamo par jeene aaye hain samaj ko badalne nahin. Maalik se prarthna hai ki kam se kam aap shaadi ke baad humari jamaat mein shamil na ho.
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