यह पंक्तियां अक्सर उस तबके के लोगों द्वारा कही जाती रही है जिन्हें देश के मिजाज के साथ तालमेल बिठाने का मौका ही नहीं मिला। सरकार बनाने के लिए वह जाति, धर्म, संप्रदाय में बंट कर वोट बैंक बने या जो इन खांचों में नहीं समाए वे पैसे पर खरीदे गए। अदालतें जो न्याय के मंदिर कहे जाते हैं यह संयोग है या कुछ और कि अधिकतम सजा पाने वाले इसी तबके से आते हैं। यहां तक कि पिछले कुछ सालों में जिन लोगों को फांसी दी गई वे इसी तबके से ताल्लुक रखते हैं। यह कोई मेरा आकलन नहीं है बल्कि देश के मिसाइल मैन कहे जाने वाले और देश के पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के हैं। अब इस क्रम में मीडिया भी खुलकर सामने आ गया है जहां वह पक्षपात करता दिख रहा है। ताजा उदाहरण है मुंबई के कैंपा कोला सोसाइटी के तोड़े जाने का।
ये कौन है जो पत्थर फेंक रहा, कौन है जो आग लगा रहा है
-
ये कौन है जो पत्थर फेंक रहा है,
इंसानियत को लहूलुहान कर रहा है।
ये कौन है जो आग लगा रहा है।
दुकानों ही नहीं भाईचारे को भी जला रहा है।
क्यों सड़कों पर बिखरा...
4 वर्ष पहले