मंगलवार, 5 अगस्त 2008

अहमदाबाद विस्फोट और `पेज थ्री'

जब मधुर भंडारकर ने पेज थ्री फिल्म बनाई थी तो पेज थ्री के पेज की शोभा बढ़ाने वाले लोगों ने उसमें दिखाए गए कुछ चीजों पर आपत्ति की थी और कहा था कि ऊंची सोसोयटी इतनी भी संवेदना शून्य नहीं है। लेकिन अहमदाबाद विस्फोट ने पेज थ्री को वास्तविकता में ही चरितार्थ कर दिया। हालांकि ऐसा पहले भी होता होगा लेकिन इस ताजा घटनाक्रम ने फिर से यह साबित कर दिया कि संवेदनशून्यता किस हद तक ऊंची सोसायटी को घर करती जा रही है।

अहमदाबाद में बम विस्फोट की एक जगह पर जहां मृतकों के शव को उठाने और घायलों को अस्पताल पहुंचाने की अफरा-तफरी मची थी, वहां से बस कुछ कदम की दूरी पर एक होटल में लोग मुर्गा तोड़ने में मशगूल थे। इतना ही नहीं वे वीडियो फुटेज को देखकर ऐसे कर रहे थे जैसे कुछ हुआ ही नहीं है। यह सब अहमदाबाद से दूर दिल्ली या किसी और शहर में होता तो कोई बात नहीं थी। गुजरात के ही किसी शहर में अगर यह सब हुआ होता तो क्षम्य था, लेकिन यह सब हुआ ऐसी जगह जो घटनास्थल से बस कुछ कदम की दूरी पर था।

मैं नहीं कहता कि सबकुछ छोड़कर इंसान को दुख मनाने में लग जाना चाहिए, इससे तो जीवन में ठहराव आ जाएगा, और जीवन तो चलने का नाम है। लेकिन ऐसी वीभत्स घटना के समय भी इस प्रकार का व्यवहार निश्चित ही संवेदनशून्यता को दरसाता है।

एक दूसरी घटना पर भी गौर फरमाइए। इसको तो आप सबने टीवी पर जरूर सुना होगा कि कैसे विस्फोट की खबर सुनकर दो युवक घायलों को मदद करने भागे। घायलों को अस्पताल भी पहुंचाया, लेकिन अस्पताल में हुए धमाकों में उन दोनों युवकों की मृत्यु हो गई। दोनों ही अपने माता-पिता के इकलौती संतान थे। एक ही समय यह तो प्रकार का व्यवहार का क्या कारण है। आखिर हैं तो हम सब इंसान ही। वस्तुतः यह वर्गीय चेतना है औऱ कुछ नहीं। मदद के लिए वही दौड़ते हैं जिनको लगता है कि मरने वाले उन्हीं में से एक हैं। यह दोनों युवक इसलिए दौड़कर गए क्योंकि घायलों और मृतकों में कहीं न कहीं उन्हें अपना ही परिवार दिखा। जबकि होटल में बैठकर शाही खाना खाने वाले जबकि बाहर लाशें बिछीं हों उनको ऐसा कुछ भी नहीं दिखा जिससे उन्हें जुड़ाव महसूस हो सके।

यह बड़ी ही अजीब बात है कि आखिर जब भी संवेदनशून्यता की बात आती है तो ऊंच वर्ग ही कटघरे में क्यों खड़े होते हैं। वस्तुतः यह शायद ऊंचे इसलिए हैं क्योंकि ये संवेदनशून्य हैं। आगे बढ़ने के लिए संवेदनहीनता की ही जरूरत होती है। कईयों का शोषण कर तथा प्रोफेशनलिज्म के आधार पर दूसरे को यूज कर ही वे ऊंचे उठे हैं।

वस्तुतः यह वर्गीय चेतना ही है जिसके आधार पर यह व्यवहार करते हैं। साम्यवाद के प्रवर्तक कार्ल माक्स ने कहा था कि हमेशा से ही समाज दो वर्गों में बंटा रहा है। पहले मालिक-दास, उसके बाद भूमिपति-भूमिहीन उसके बाद पूंजीपति-श्रमिक। भारतीय समाज तो इससे एक कदम आगे जाति के आधार पर विभाजित हुआ। समय-समय पर यही वर्गीय विभाजन इस तरह की चीजों में परिलक्षित हो जाता है। लेकिन जब देश की बात आए, इंसानी मूल्यों की बात आए, इंसानी जानों की बात आए तो इस वर्गीय चेतना से ऊपर उठकर सोचना चाहिए। श्रीमदभगवतगीता में कहा गया है कि इंसान मूलतः एक शुद्ध प्राणी है, लेकिन इनलोगों को देखकर तो लगता है कि इसपर से भी भरोसा उठाना पड़ेगा।

रविवार, 27 जुलाई 2008

कैसे भूलें वह मंजर

जब-जब सीरियल ब्लास्ट होते हैं तो लोग मारे जाते हैं, सरकार जांच करवाने में जुट जाती है, मरने वालों और घायलों के लिए मआवजा घोषित किया जाता है और कुछ दिनों में सबकुछ समान हो जाता है। लेकिन इन आतंकी हमलों में जो मानवीय संवेदनाएं टूटती हैं, उसकी भरपाई कभी नहीं हो पाती।

प्रत्येक हमले में कई ऐसे वाकये सामने आते हैं, जिसको सुनकर दिल दहल जाता है। अहमदाबाद में हुए आतंकी हमले का ही उदाहरण ले लें। अस्पताल में एक बच्च जीवन और मौत से जूझ रहा है और अपनी मम्मी को ढूंढ रहा है। लेकिन उसको पुचकारने और चुप कराने के लिए उसकी मां और पिता में से कोई नहीं है। उसके माता-पिता दोनों धमाकों में मारे गए हैं। उसका एक बड़ा भाई है, वह भी धमाकों के कारण बुरी तरह से घायल अस्पताल में ही पड़ा है। उसी तरह एक बूढ़े पिता के दिल का दर्द सुने। उसका जवान बेटा धमाकों में मारा गया है। लेकिन उनमें इतनी हिम्मत नहीं है कि वह अपने बेटे की लाश को जाकर ले आएं। जब उनसे पूछा गया कि उनका बेटा कहां है, तो बस वह फूट-फूटकर रो पड़ते हैं।

मन को दहला देने वाले कई ऐसी घटनाएं हैं, जिसके बारे में बस कहा और लिखा ही जा सकता है। सीमा पर लड़ने वाले जवानों को दो पता होता है कि हमला किधर से होगा। उनके पास लड़ने के लिए हथियार भी होता है। लेकिन इन आम इसानों को क्या, जिनको न तो पता होता है कि हमला किधर से होगा और न ही उनको पता होता है कि उन्हें लड़ना किससे है। बिना लड़े ही देश के दुश्मनों के हाथों शहीद हुए इन जांबाजों को सलाम।

सोमवार, 7 जुलाई 2008

अब मां-बाप की भी आउटसोर्सिंग

पहले नौकरियां, उसके बाद स्वास्थ्य सेवा, जिसके तहत हजारों की संख्या में ब्रिटेन के लोग भारत आकर इलाज कराना ज्यादा बेहतर समझते हैं। और अब बारी है मां-बाप के आउटसोर्सिग की। इन सब का कारण एक ही है पैसे की बचत।

हाल ही में एक ब्रिटेन के परिवार ने अपने माता-पिता को गोवा के एक वृद्धा आश्रम में भेज दिया, क्योंकि यहां पर उनकी देख-रेख में आने वाला खर्च ब्रिटेन में आने वाले खर्च के काफी कम है। इसी तरह न्यूयार्क के एक परिवार ने जो पिछले तीन साल से अपने माता-पिता की देखरेख वहीं न्यूयार्क में कर रहे थे, अब पैसे का बोझ कम करने के लिए उन्हें भारत स्थांनांतरित करने का फैसला किया है। इन जैसे ही पता नहीं कितने ही लोग अपने मां-बाप को ढ़लती उम्र में देश निकाला देने की तैयारी कर रहे हैं।

जनरल मेडिकल काउंसिल के अध्यक्ष शिव पांडे कहते हैं कि यह कोई नई बात नहीं है। ब्रिटेन में रहने वाले अधिकतर भारतीय वृद्धावस्था में रिटायरमेंट के बाद भारत ही आकर रहना पसंद करते हैं। लेकिन इन दोनों ही बातों में एक अंतर है। जो भारतीय विदेश गए हैं, उनका उद्देश्य बाहर जाकर पैसे कमाना होता है, इसलिए जब पैसे कमाने के मौके खत्म हो जाते हैं तो वे अपने देश ही आकर रहना पसंद करते हैं। कई भारतीय तो 10 या 20 सालों में ही अपने देश आ जाते हैं।

लेकिन वे विदेशी लोग जो अपने मां-बाप को बाहर भेजना चाहते हैं उनका मात्र उद्देश्य पैसा बचाना ही है। कोई भी मां-बाप अपना अंतिम समय अपने बच्चों के साथ रहकर गुजारना चाहते हैं। उनके अपने बच्चे अपने साथ रखना तो छोड़िए वे तो उन्हें उनके देश से ही बाहर निकाल रहे हैं।

हो भी क्यों नहीं आज के पूंजीवादी समाज में जहां हर संबंध पैसे पर तय होते हैं, वहां किसी के प्रति मानवीय संवेदना की आशा करना ही व्यर्थ है। जरूरत पूरी, संबंध खत्म। अब मां-बाप के साथ भी लोग फायदे और नुकसान को देखते हुए संबंधों को रखने लगे हैं। यही तो है आज का प्रोफेशनलिज्म।

अपने भी देश में स्थिति कोई बहुत अच्छी नहीं है। आए दिन खबर आती रहती है कि बेटों ने मां-बाप को घर से निकाला। अगर घर से नहीं भी निकाला तो उनकी स्थिति अपने ही घर में बड़ी ही दयनीय हो जाती है। भारत में भी लोगों में अकेले रहने की प्रवृति बढ़ी है। यही कारण है कि यहां भी वृद्धाश्रमों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। अगर आने वाले दिनों में भारतीय भी अपने मां-बाप को नेपाल या कोई अन्य गरीब अफ्रीकी देशों में आउटसोर्स कर दें तो हैरान मत होईएगा।

इस मौके पर तो मुझे निदा फाजली की कुछ लाइनें याद आ रही हैं जो उन्होंने `मां' नामक कविता में लिखी थी -
बीवी, बेटी, बहन, पड़ोसन,
थोड़ी-थोड़ी सी सब में,
दिन भर एक रस्सी के ऊपर,
चलती नटनी जैसी मां।
बांट के अपना चेहरा माथा,
आंखें जाने कहां गई,
फटे-पुराने एक एलबम में,
चंचल लड़की जैसी मां।

शनिवार, 5 जुलाई 2008

विदेश नीति से तय होती घरेलू राजनीति

देश में मंहगाई आसमान छू रही है, जिसको लेकर ज्यादा चर्चा नहीं है। अगर चर्चा का कोई मुद्दा है तो अभी है अमेरिका के साथ परमाणु करार। इसको लेकर जो बवाल पिछले कुछ दिनों से खड़ा हुआ है, वह और अधिक बढ़ता नजर आ रहा है।

इससे न सिर्फ सरकार के भाग्य को लेकर सवाल खड़ा हो गया है बल्कि आने वाले चुनावों को देखते हुए पार्टियों के बीच गठजोड़ भी शुरू हो गया है।

एक तरफ जहां कांग्रेसकी विरोधी समाजवादी पार्टी आने वाले लोकसभा चुनाव को देखते हुए कांग्रेस के साथ आती दिख रही है। वहीं दूसरी तरफ यूनाइटेड नेशनल प्रोग्रेसिवएलाइंस (यूएनएपी) ने यह साफ कर दिया है कि अगर समाजवादी पार्टी करार का समर्थन करती है तो उसके लिए यूएनएपी में कोई जगह नहीं है, हालांकि समाजवादी पार्टी ने यह साफ कर दिया है कि वह परमाणु करार मुद्दे पर सरकार के साथ है।

इस राजनीतिक खेमेबंदी के बीच भारतीय जनता पार्टी ने भी यूएनएपी को अपने करीब लाने का प्रयास तेज कर दिया है। भाजपा नेता जसवंत सिंह ने कहा कि उनकी पार्टी ने यूएनपीए को केंद्र में सरकार बनाने के लिए कहा था। भाजपा ने बहुजन समाज पार्टी से भी नजदीकी बढ़ानी शुरू कर दी है।

वाम दलों का भी परमाणु करार पर इतने तीखे विरोध का कारण उसका अपना वोट बैंक ही है। वाम दलों की नीति हमेशा से ही अमेरिका विरोधी रहा है। डील मुद्दे पर वह सरकार का साथ देकर किसी सैद्धांतिक उलझव में नहीं पड़ना चाहता। आने वाले चुनावों में वह ऐसे सैद्धांतिक उलझव के साथ कतई नहीं जाना चाहेगा, जिसका वह हमेशा से विरोध करता रहा है।

जिस परमाणु करार के विरोधी इसकी मौत का फरमान लिखने के लिए बेताब था वह फिर से पुनर्जीवित होता दिख रहा है,साथ ही यह घरेलू राजनीति को भी तय कर रहा है। समस्त पार्टी इसी को केंद्र में रखकर अपना समीकरण बिठाने में लग गए हैं।

शनिवार, 28 जून 2008

हंगामा है क्यों बरपा........

जम्मू कश्मीर में श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड को हस्तांतरित जमीन को लेकर उपजा विवाद आखिरकार गुलाम नबी सरकार की गले की फांस बन ही गया। कांग्रेस की समर्थक पार्टी पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी ने सरकार से समर्थन वापसी की घोषणा कर दी। हालांकि सरकार के वैसे भी कुछ ही महीने बचे थे, लेकिन जिस मुद्दे पर समर्थन वापसी की घोषणा हुई है वह न तो जम्मू-कश्मीर के लिए हित में है और न ही देश हित में। क्योंकि ऐसे कदमों से समाज बंटेगा ही। लोगों में सांप्रदायिक भावना भड़काकर राजनीतिक लाभ लेने से आने वाले समय में जम्मू कश्मीर को और भी बुरे दिन देखने को मिल सकते हैं।

मामला यह है कि श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड को जंगल की भूमि प्रदान की गई, जिसका प्रयोग अमरनाथ यात्रा के समय बेस कैंप के रुप में होना था। बोर्ड को वहां कोई स्थाई निर्माण की इजाजत नहीं थी। इस मामले का विरोध इस आधार पर शुरू हुआ कि इससे राज्य का जनांकिकीय संतुलन (Demographic Balance) बिगड़ जाएगा। इस विरोध का दूसरा आधार पर्यावरणीय है।

सबसे पहली बात तो ये कि इस अस्थाई बेस कैंप से जम्मू कश्मीर के जनांकीकिय संतुलन पर कैसे प्रभाव पड़ेगा। और अगर पड़ता भी हो तो क्या जम्मू-कश्मीर सिर्फ मुसलमानों का है। एक तरफ तो लाखों की संख्या में कश्मीरी हिन्दु राज्य के बाहर रहने को विवश हैं, दूसरी तरफ वहां की कौम का यह रवैया। तो किस मुंह से सरकार या वहां के लीडरान कहते हैं कि कश्मीरी हिन्दु कश्मीर आकर बसें। जब एक अस्थाई बेस कैंप पर इतना बवाल होगा तो कैसे वे लोग हिन्दुओं के स्थाई निवास को सहन कर पाएंगे।

इस मामले में जो सबसे बुरी बात हुई है वह है इस प्रकार के आंदोलनों को राजनीतिक समर्थन। ऐसा करके ये पार्टियां दो समुदायों के बीच सांप्रदायिक दूरी को बढा ही रहे हैं, जो कतई देश हित में नहीं है। किसी मुद्दे पर आम लोग आम व्यवहार करते ही हैं, लेकिन समाज के प्रबुद्ध वर्ग की यह जिम्मेवारी बनती है कि वे हमेशा सही बात कहते रहें, उससे परहेज न करें। अपने क्षुद्र राजनीतिक फायदे के लिए इस प्रकार का व्यवहार घातक है।

मैने अभी हाल ही में एक किताब पढ़ी `India : After Ayodhya' । इस किताब की कुछ बातों ने मुझे प्रभावित किया। इसमें लेखक ने लिखा है कि आज तक के इतिहास में अगर एक जाति ने दूसरी जाति पर जुल्म ढाया है तो बाद की पीढ़ि ने इसके लिए दूसरी जाति से माफी मांगी है। एकमात्र मुसलमान ही ऐसी जाति है जो अपने किए पर कभी शर्मिंदा नहीं हुई। जर्मन जाति ने यहूदियों पर जुल्म ढाया, ब्रिटन ने रेड इंडियन्स पर जुल्म ढाया और अमेरिका से लगभग उन्हें समाप्त ही कर दिया। लेकिन इस सब जातियों की बाद की पीढियों ने अपने पूर्वजों के इस कृत्य के लिए माफी मांगी। हालांकि इसके लिए आज की पीढि बिल्कुल भी जिम्मेवार नहीं थी।

अब मुसलमानों पर आइए। मध्यकाल में जब इस धर्म का प्रसार हो रहा था तो मुसलमान जाति ने कई जातियों पर जुल्म ढाए और उन्हे मुसलमान बनाया। इस बात से किसी को भी आपत्ति नहीं होनी चाहिए क्योंकि इस्लाम का प्रसार ही खून खराबे से हुआ है, यही जेहाद है अर्थात धर्म युद्ध। भारत में भी मुसलमान आए और बड़े पैमाने पर नरसंहार हुए। आप कह सकते हैं कि ये सभी युद्ध राजनीतिक युद्ध थे। मैं भी इतिहास का विद्यार्थी होने के नाते यह जानता हूं कि ये युद्ध राजनीतिक थे। लेकिन कई ऐसे आक्रमणकारी भी आए जिनका उद्देश्य सिर्फ लूटपाट करना ही था। चाहे वह महमूद गजनवी हो या फिर तैमूर। लेकिन इसके लिए भी मुसलमान समाज ने कभी भी माफी नहीं मांगी।

आप सोंच रहे होंगे कि मैं एक सांप्रदायिक व्यक्ति हूं। लेकिन यकीन मानिए, ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। जब अमेरिका ने अफगानिस्तान पर हमला किया था तो मैंने खुद अपने कॉलेज में `War, Terrorism and Jihad' पर एक सेमिनार करवाया था। उस वक्त दिल्ली में वार तथा जिहाद को लेकर पोस्टरबाजी करने पर दिल्ली पुलिस की तरफ से रोक लगी हुई थी, लेकिन उस समय भी हमने यह कर दिखाया था। कुछ पुलिस वालों से तू-तू, मैं-मैं भी हुई। मैं यह सब सिर्फ इसलिए लिख रहा हूं कि आप इस पर एक बार सोंचे और अपनी बात कहें। मुस्लिम समाज कि इस असहनशीलता का विरोध करना ही चाहिए। जिस प्रकार हिन्दुओं को समझने की जरूरत है कि मुसलमान भी इस देश के निवासी हैं हमारे भाई हैं, यह बात मुसलमानों को भी समझनी पड़ेगी कि हिन्दु उनके भाई हैं। अगर वे इस प्रकार की असहनशीलता दिखाएंगे तो देश का भला कतई नहीं होगा।

शनिवार, 21 जून 2008

फर्क तो पड़ता है.....

मैं पिछले कई महीनों से कुछ चीजों को देखकर बहुत परेशान हो जाता हूं, इसलिए सोचा कि आपलोगों से शेयर कर लूं। एक तो शाम को जब मैं कनाट प्लेस से आफिस से घर जाता हूं तो एक तो सबवे में कई कबाड़ी लोग बैठे रहते हैं और वे सब कोकीन लेते रहते हैं। थोड़ा और आगे बढ़े तो पंचकुईंयां रोड के पास जो मेट्रो लाइन है वहां दर्जनों लोग बैठे रहते हैं और सभी सामूहिक रूप से कोकीन लेते रहते हैं, जिसमें कई महिलाएं भी शामिल होती हैं।

अब ये तो माना जा नहीं सकता कि पुलिस को या मीडिया को इसकी खबर नहीं है। लेकिन इसके बावजूद खुल्लमखुल्ला लोग कोकीन लेते रहते हैं। लेकिन मैं यहां कोई कानूनी मामला नहीं उठाना चाहता। मैं इसमें मानवीय पहलू को उठाना चाहता हूं। ये लोग जो ये सब करते रहते हैं समाज के बिल्कुल निचले तबके से आते हैं। छोटा मोटा काम करते हैं और इतना भी नहीं कमा पाते कि अपने परिवार के लिए दो टाइम के खाने का बंदोबस्त कर पाएं। लेकिन फिर भी नशा करने के लिए इनके पास पैसा आ जाता है। आप कह सकते हैं कि इन लोगों को जीने का सलीका ही नहीं आता। इसलिए ये लोग हमेशा गरीब ही रह जाएंगे।

लेकिन आप सोचिए वह आदमी जिसने दिन भर कमरतोड़ मेहनत की है और जिसे भर पेट खाना भी न मिले और अगले दिन फिर उसे काम करना हो तो वो क्या करे। शायद बो अगर नशा न करे तो शायद वह सो भी नहीं पाएगा, तो वह काम क्या करेगा खाक। आप ये मत सोचिएगा कि मैं इनके नशा करने को सही कह रहा हूं बस देखने का नजरिया बता रहा हूं। इससे शायद इन मजबूर लोगों को देखकर आपको घृणा नहीं संवेदना होगी और आप यह नहीं कहेंगे क्या फर्क पड़ता है। वास्तव में मेरा मानना है कि समाज के लिए सबसे खतरनाक यही लोग होते हैं, जो कहते हैं क्या फर्क पड़ता है, सब चलता है, ऐसे लोग वो होते हैं जिन्हें सही गलत के बारे में पता तो होता है लेकिन उसे वह स्वीकार नहीं करना चाहते, क्योंकि इससे उनको खुद अपने जीने का सलीका ठीक करना पड़ेगा। खैर इसको छोड़िए....।

वास्तव में इस तबके के लोगों की परेशानी यह है कि नगरीकरण के दौर में काम की तलाश में ये लोग शहर आ गए। गांव में काम है नहीं। लेकिन ये यहां आकर अंतहीन दुख में ही फंस जाते हैं। मेरी एक आदत है कि मैं गरीब लोगों से बात करने की कोशिश करता हूं। मैं एक बार एक रिक्शे वाले से बात कर रहा था कि वह कितना कमा लेता है। इसका भी हिसाब सुन ही लीजिए। वह दिन में औसतन 100 रुपये कमाता है, जिसमें से 30 रुपये रिक्शे का किराया। बचे 70 रुपये इसमें से कमरे का किराया प्रतिदिन के हिसाब से 20 रुपये। बचे 50 जिसमें से दो टाइम का खाना। कितना भी सस्ता खाना लगाएं तो दो टाइम का खाना 30 रुपये से कम नहीं होगा। बचे 20 रुपये। इस बीस रुपये में चलाना होता है उसे अपना पूरा परिवार। उसमें भी अगर वो एक दिन भी बीमार पड़ गया तो सोचिए क्या होता होगा। इनके लिए तो बीमार पड़ना भी अपराध है। फिर आप कहेंगे कि लोग अपने बच्चों को कैसे काम पर भेज देते हैं। इनको स्कूल क्यों नहीं भेजते। सरकार ने जब काम के बदले अनाज तथा स्कूलों में मिड डे मील स्कीम शुरू किया तो कई लोगों ने इसका बहुत विरोध किया। अभी भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो इसकी आलोचना करने से बाज नहीं आते और कहते हैं कि बच्चे खाना लेकर चले जाते हैं। लेकिन सरकार बखूबी जानती है कि इसका क्या फायदा है। विवेकानंद ने कहा था कि भूखे आदमी से धर्म तथा समाज सुधार की बात करना अपराध है। हमलोग बस यही आशा कर सकते हैं सरकार की ये स्कीमें सफल हों।

मैं जब कालेज में था तो मेरी एक प्रोफेसर थीं शहाना मैडम। वास्तव में उन्होंने मेरी जिंदगी को बहुत ज्यादा प्रभावित किया। वो एक टूटे हुए स्कूटर पर आतीं थीं और मुझे अब भी पूरा विश्वास है कि उनका स्कूटर नहीं छूटा होगा। वो कहा करतीं थी की सुजीत आदमी को कितने पैसे की जरूरत होती है, मेरे तो पैसे बच जाते हैं। खैर, उनके बारे में बताना शुरू करुंगा तो मुद्दा कहीं छूट जाएगा। उनका अपना एक एनजीओ है `परिवर्तन'। मैंने भी अपने कॉलेज लाइफ में इसके लिए काम किया था। इस एनजीओ के ऐसे तो बहुत काम थे लेकिन एक काम यह भी था कि छोटे-मोटे अपराध के चलते जुर्माना न भर पाने के कारण कई लोग जो जेल में बंद होते थे उनको बाहर निकालना। कई बार मैं भी उनके साथ तिहाड़ जैल गया था और सजा भुगत रहे आदमी के परिवार से भी मिला। सच बता रहा हूं अगर जज को उस परिवार को दिखा दिया जाए तो शायद वह भी सजा देने से पहले हजार बार सोंचेगा। लेकिन किसी भी मजबूर इंसान की मदद कर जो सुकून मिलता है वो मुझे कॉलेज से निकलने के बाद आज तक नहीं मिला।

जिसका पेट भूखा है उससे अच्छे बुरे की बात करना भी अपराध है। कहा भी जाता है कि अच्छा और बुरा समाज के सबसे ऊपर और सबसे नीचे तबके के लिए नहीं बना। क्योंकि सबसे नीचे तबके के लोग इसकी परवाह नहीं करते और सबसे ऊपर तबके के लोगों को अच्छे बुरे के लफड़े में पड़ने की जरूरत नहीं पड़ती। इसलिए नशा और अपराध की सबसे ज्यादा घटना निचले और ऊपरी तबके के लोगों के द्वारा ही अंजाम दिया जाता है। क्या अच्छा है, क्या बुरा है, यह सब चीजें मध्यमवर्ग के लिए है और शायद यही वह चीज है जिसपर वो गर्व करके अपने आपको तसल्ली देते हैं।

बुधवार, 18 जून 2008

आईपीएल के सीजन में फुटबॉल

भारत जैसे देश में जहां खेल का मतलब क्रिकेट, क्रिकेट और क्रिकेट तक ही सिमट कर रह जाता है ऐसे में अन्य खेलों की दुर्दशा पर अफसोस जाहिर करने के अलावा कुछ नहीं किया जा सकता। हाल ही में संतोष ट्राफी का ही उदाहरण ले लीजिए। पहले तो इस आयोजन को करने में ही परेशानी हो रही थी। जैसे-तैसे इंतजाम के बाद इसका आयोजन तो हुआ लेकिन खिलाड़ियों की दुर्दशा के बारे में अगर आप जानेंगे तो आप स्वतः ही समझ जाएंगे कि उनके लिए खेलना किसी अग्निपरीक्षा से कम नहीं है।

इस आयोजन के लिए खिलाड़ियों को जो दैनिक भत्ता आल इंडिया फेडरेशन की तरफ से दिया गया वह महज 400 रुपये प्रतिदिन था। जिसमें खाना और रहना सभी शामिल था। इसके ऊपर 100 रुपये का पॉकेट मनी स्टेट एसोसिएशन की तरफ से दिया गया।

अब इस आधार पर देखिए कुछ टीमों की स्थिति। कर्नाटक की टीम जो कि जम्मू-कश्मीर में डल झील के पास सलीम गेस्ट हाउस में रुकी, उसका किराया 1000 रुपये प्रतिदिन था। एक रुम में चार-चार खिलाड़ी रुके जिसमें टीम के हर खिलाड़ी का 250 रुपया रहने में ही गया। उसके बाद खाना और अन्य जरुरतें अलग। इसके साथ-साथ अगर लांड्री का प्रयोग करना हो तो उसके लिए अलग से भुगतान करना पड़ता था। जाहिर है खिलाड़ियों ने खुद ही अपने कपड़े धोने का विकल्प चुना।

अब केरल की टीम का दुखड़ा सुनिए। केरल की टीम ताज होटल में रुकी। वहां किराये के अलावा सिर्फ लंच ही मुफ्त मिलता था। इसके अलावा नाश्ता और डिनर अपने पैसे से करने की खिलाड़ी सोंचने की स्थिति में ही नहीं थे। क्योंकि ताज का डिनर 400 रुपये प्रतिदिन के पैसे के हिसाब वाले व्यक्ति के लिए सोंचना भी जुर्म है।

अब इन खिलाड़ियों के सफर के बारे में भी जान ही लीजिए। केरल और कर्नाटक की टीम को जम्मू पहुंचने में ही तीन दिन लग गए। आप समझ सकते हैं दक्षिण भारत के एक छोर से उत्तर भारत के दूसरे छोर तक ट्रेन से जाने में कितना समय लगेगा। तीन दिन में जम्मू पहुंचने के बाद फिर उन्हें 12 घंटे का बस का सफर करना पड़ा। वहां से भी उन्हें हवाई सेवा मुहैया नहीं करवाई गई। जबकि फेडरेशन अगर चाहता तो इससे बेहतर बंदोबस्त किया जा सकता था।

यह हालत तो तब है जब एक राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिता के लिए ये खिलाड़ी शिरकत करने जा रहे थे। सोंचिए इनको बाकी दिनों में कैसी सुविधा दी जाती होगी। यह हालत सिर्फ फुटबॉल की ही नहीं है, यह हालत हॉकी समेत सभी खेलों की है। ऐसी स्थिति में भी किसी प्रतियोगिता के दौरान हमें अपनी टीम से विश्व स्तर का प्रदर्शन चाहिए। उस वक्त हमें यह याद नहीं आता कि बिना किसी सुविधा के ये खिलाड़ी सिर्फ जज्बातों की ताकत से ही हर तरह से संपन्न विदेशी टीमों से लड़ते हैं, और जब लड़ते हुए परास्त होते हैं तो पूरा देश उनकी आलोचना में खड़ा हो जाता है। कोई यह नहीं सोंचता कि आखिर उनकी यह हालत क्यों है।

पिछले दिनों हॉकी को लेकर बड़ा बवाल हो गया। हॉकी फेडरेशन के उस समय के अध्यक्ष केपीएस गिल को भी हटना पड़ा। उनको हटना ही चाहिए था। मैं सिर्फ इतना कहना चाहता हूं कि यह समस्या का निदान नहीं है। हमें अपने खिलाड़ियों के लिए बेहतर व्यवस्था करनी होगी। बेहतर कोचिंग फैसीलिटी, बेहतर इंतजाम तथा बेहतर भत्ता। ताकि किसी खिलाड़ी को अपना ओलंपिक मैडल न बेचना पड़े।

पिछले दिनों प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा कि हॉकी क्रिकेट से अधिक महत्वपूर्ण है। लेकिन यह कह भर देने से नहीं होता। बेहतरी के लिए कदम उठाना होगा। क्रिकेट ने जो मुकाम हासिल किया है वो उसने अपने प्रदर्शन की बदौलत हासिल किया है। एक आटोनोमस बाडी के रूप में बीसीसीआई ने इतना प्रोफेशनलिज्म अपने काम में लाया, उसी का नतीजा है कि आज क्रिकेट ने यह मुकाम हासिल किया है।

अगर देश में अन्य खेलों को भी बढ़ावा देना है तो इसके लिए बयान की बजाय सरकार को चाहिए कि वह अन्य खेलों की नीतियों में व्यापक सुधार करे। अन्य खेल फेडरेशन के कामकाज में ट्रांसपैरेन्सी लाए। ऐसा न हो कि एक ही व्यक्ति किसी फेडरेशन का अध्यक्ष वर्षों से बना रहे।

इस वक्त मुझे कुछ लाइनें याद आ रही हैं जो मेरे कॉलेज की एक लड़की ने लिखा था -

रख तू राह पर दो-चार ही कदम मगर जरा तबीयत से,
कि मंजिल खुद-ब-खुद तेरे पास चलकर आएगी।
ऐ हालात का रोना रोने वालों,
मत भूल कि तेरी तदबीर ही तेरी तकदीर बदल पाएगी।।

सोमवार, 16 जून 2008

वाह री मीडिया



जैसा कि आप देख रहे हैं। इस नरकंकाल को देखकर आप स्वतः ही अनुमान लगा सकते हैं कि यह कितना बड़ा कंकाल होगा। खबर के अनुसार दक्षिण भारत में सेना क्षेत्र में यह कंकाल मिला है। कल एक टीवी चैनल ने इसको बहुत देर तक दिखाया भी और कहा की यह महाभारत में वर्णित भीम का पुत्र घटोत्कच्छ का कंकाल है।



मैं आपका ध्यान कुछ चीजों की ओर आकर्षित करना चाहता हूं-

1. यह इमेज `वर्थ 1000' से उठाया गया है। इस साइट पर अलग अलग तरह के डिजिटल फोटो को अप इडिट करके अपलोड कर सकते हैं। इस इमेज को वहीं से उठाया गया है।


2. जैसा की खबर में कहा गया है कि इसकी खोज नेशनल ज्योग्राफी की टीम ने आर्मी एरिया में किया है लेकिन अब तक न तो आर्मी ने और न ही नेशनल ज्योग्राफी की टीम ने कुछ आधिकारिक बयान दिया है।

3. मानव आकृति के हिसाब से यह मानने योग्य है ही नहीं। ऐसा इसलिए कि मानव के इतना अधिक समझदार जीव बनने के पीछे एक प्रमुख कारण उसका आकार भी है। बड़े आकार के जीवों की मस्तिष्क क्षमता इतनी बढ़ ही नहीं सकती जितनी की मानव की है।




देखिए कुछ डिजिटल फोटो का नजारा-


1.




एक आंख वाला इंसान, देखा है कभी आपने। अगर टीवी चैनल इसी को एक न्यूज बनाकर आपको कल दिखा दें तो हैरान मत होइएगा।
2.



एक नजारा यह भी देखिए। छोटे से गोलाकार आकृति में बच्चा। कल को इसे लिलिपुट से मिला अवशेष बताया जा सकता है।

मीडीया पर सवालः

सवाल यह उठता है कि आखिर मीडिया किस ओर जा रहा है। टीआरपी रेटिंग के पीछे दौड़ता मीडिया शायद भूल गया है कि उसकी समाज के प्रति भी कुछ जिम्मेवारी है। न्यूज के नाम पर लोगों के सामने अंधविश्वास, जादू टोना, मानवता को छिन्न-भिन्न करने वाले ऐसी खबरों को दिखाकर मीडिया क्या दिखाना चाहता है।

कब तक मीडिया टीआरपी के लिए लोगों को बरगलाती रहेगी। अपना एक स्टैडर्ड तो सेट करना ही चाहिए। अगर नहीं तो ऐसा कहने का कोई हक नहीं कि मीडिया समाज ऐसा बुद्धिजीवी समाज है जो समाज को आइना दिखाता है। मुझे तो लगता है कि आज की मीडिया आइना नहीं अपने मतलब का चश्मा लोगों को पहनाता है। यह भारतीय संस्कृति रही है कि हम बहुत अधिक विश्वास करते हैं, लेकिन जब विश्वास टूटता है तो फिर किसी पर विश्वास नहीं करते। मीडिया को ध्यान रखना चाहिए कि कहीं लोगों का विश्वास ही न उठ जाए। इसलिए मीडिया भालू आया.....भालू आया...करना छोड़े।

शनिवार, 14 जून 2008

रानी को नहीं पता कहां है राजघाट

हाय रे बॉलीवुड, पैसे की चमक-दमक और पश्चिमी सभ्यता के चकाचौंध में हमारे बॉलीबुड के सितारे इतनी खो गए हैं कि उन्हें यह तक पता नहीं कि कहां है बापू का समाधि स्थल राजघाट। जी हा शाहरुख खान की पांचवीं पास में आए सफलतम अभिनेत्रियों में मानी जाने वाली रानी मुखर्जी से जब पूछा गया कि राजघाट कहां है तो वह बगलें झांकतीं नजर आईं। उनके साथ आए करण जौहर ने तो कहा कि उन्होंने मधुर भडारकर की फिल्म में देखा था, शायद यह नई दिल्ली में है। आपको लग सकता है कि यह बहुत ही साधारण बात है। आप सोंच रहे होंगे कि हो सकता है कि जेनरल नॉलेज कमजोर हो। लेकिन अगर ऐसा है तो उन्हे यह भी पता नहीं होना चाहिए कि एफिल टॉवर कहां है। लेकिन ऐसा नहीं होगा।

आज फिल्मी दुनिया की हस्तियों को अपने देश से अधिक विदेशी चीजें पसंद है। फेवरेट एक्टर पूछिए तो कोई विदेशी कलाकार का नाम सुनने को मिलेगा, फेवरेट शूटिंग डिस्टेनेशन भी विदेश ही, फेवरेट रायटर भी विदेशी ही, चाहे भले ही वे यह नहीं जानते हों कि प्रेमचंद कौन हैं। एक बार जब मैं कॉलेज में था तो पाकिस्तान टूर का प्लान कॉलेज की तरफ से बना। हमलोग बड़े खुश थे। हमारे एक प्रोफेसर ने क्लास में कहा कि आपलोगों में से कितनों ने राजगीर देखा है। मुशिकल से 4-5 हाथ उठे होंगे। उन्होंने कहा कि पहले अपने देश को जानों। अब समझ में आ रहा है कि उनहोंने कितना सही कहा।

इसी प्रोग्राम में जब रानी से हिन्दी में पूछा गया कि 47 को क्या कहते हैं तो उन्हें 70 नजर आ रहा था। जब देश के राष्ट्रपिता के बारे में ही जिसको जानकारी नहीं हो तो उससे हिन्दी के बारे में आशा करना शायद बेवकूफी होगी। एक बार बॉलीवुड के महानायक अमिताभ बच्चन से जब पूछा गया कि आप अपने बेटे को सफल होने के लिए क्या सलाह देना चाहेंगे तो उन्होंने कहा था कि वे जब भी बोलें हिन्दी में बोलें। क्योंकि हमारे अधिकतर दर्शक हिन्दीभाषी ही हैं। इससे दर्शक जुड़ाव महसूस करते हैं। आज बॉलीवुड के अधिकतर सितारे इंग्लिश में ही बात करते हैं चाहे भले ही उनसे हिन्दी में सवाल पूछा जाए।

अंग्रेजियत की चकाचौंध में खोया हमारा बॉलीवुड अगर ऐसी फिल्में बनाता है जिसका समाज से कोई सारोकार नहीं होता तो क्या गलत है? यह चर्चा अब पुरानी हो चुकी है कि अब फिल्मों और टीवी पर भी आम आदमी गायब हो गया है। इसलिए मैं इसपर कुछ ज्यादा नहीं लिखूंगा। वैसे भी आज अंग्रेजीदार मॉल संस्कृति में तो आम आदमी घुटन महसूस करता है। उसके लिए तो वही गांव के चौक पर पान की दूकान, सस्ती सी सुपाड़ी और चमकीले भड़कीले कपड़े। उसी में हैं वे खुश। लेकिन बॉलीवुड को अपनी जिम्मेवारी समझनी होगी। समाज की बेहतरी के लिए बॉलीवुड की भी कुछ जिम्मेवारी बनती है। लेकिन रानी मुखर्जी और करन जौहर जैसे लोगों से मुझे कोई आशा नहीं है।

पाश्चात्य जगत में जब आधुनिक युग का प्रवेश हुआ तो उससे पहले अंधकार युग था। उस समय का यूरोपीय समाज शायद इतना रुढिवादी था जैसा भारतीय समाज भी कभी नहीं था। वहां आधुनिकता की बयार बही। यह बयार ग्रीक फिलॉसोफी में छिपी हुई थी। उन्होंने उसी को अपनाया। ग्रीक साहित्य में वो सबकुछ था जो एक समाज को आधुनिक बनाने के लिए आवश्यक हैं। स्वतंत्रता, समानता, साइंटिफिक टेम्परामेंट। यूरोपीय समाज ने उसको अपनाया। उन्होंने इसके लिए किसी दूसरे का अंधानुकरण नहीं किया। लेकिन हम कुछ और ही कर रहे हैं। ऐसा नहीं है कि हमारी सभ्यता में ये सभी तत्व नहीं है। लेकिन हमने उसे अपनाया ही नहीं।

बुधवार, 23 अप्रैल 2008

आ ही गया मैं

पत्रकारिता में आने के बाद अपना ब्लॉग रखना एक फैशन ही हो गया है। मैं नहीं कहूंगा कि यह मैंने अपने उच्च विचारों को आपके सामने रखने के लिए बनाया है। बनाया तो मैने भी बस फैशन के लिए ही है। कई लोग ब्लॉग बनाते समय बहुत उत्साह दिखाते हैं और बाद में उनका उत्साह कम हो जाता है और शायद ही वे खुद भी अपना ब्लॉग देखते होंगे। लेकिन इसका करण हम मित्र लोग ही हैं जो अपने मित्रों का ब्लॉग देखते ही नहीं है। जब विचारों को कहीं से समर्थन या आलोचना के दो शब्द नहीं मिलेंगे तो विचारों को पंख कैसे लगेंगे। मुझे भी पता है कि मैं भी कुछ दिनों में अपने ही ब्लॉग का नाम भूल जाऊंगा क्योंकि मैं खुद भी बहुत ही सुस्त प्रकृति का आदमी हूं। मेरे जो मित्र मुझे नजदीकी से जानते हैं वे इससे अच्छी तरह वाकिफ हैं। खैर फिलहाल तो नया नया जोश है तो कुछ दिन तो ये कायम रहेगा ही। अभी के लिए इतना ही।